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History of Chambal

 चम्बल का इतिहास क्या हैं? ये वो नदी है जो मध्य प्रदेश की मशहूर विंध्याचल पर्वतमाला से निकलकर युमना में मिलने तक अपने 1024 किलोमीटर लम्बे सफर में तीन राज्यों को जीवन देती है। महाभारत से रामायण तक हर महाकाव्य में दर्ज होने वाली चम्बल राजस्थान की सबसे लम्बी नदी है। श्रापित और दुनिया के सबसे खतरनाक बीहड़ के डाकुओं का घर माने जाने वाली चम्बल नदी मगरमच्छों और घड़ियालों का गढ़ भी मानी जाती है। तो आईये आज आपको लेकर चलते हैं चंबल नदी की सेर पर भारत की सबसे साफ़ और स्वच्छ नदियों में से एक चम्बल मध्य प्रदेश के इंदौर जिले में महू छावनी के निकट स्थित विंध्य पर्वत श्रृंखला की जनापाव पहाड़ियों के भदकला जलप्रपात से निकलती है और इसे ही चम्बल नदी का उद्गम स्थान माना जाता है। चम्बल मध्य प्रदेश में अपने उद्गम स्थान से उत्तर तथा उत्तर-मध्य भाग में बहते हुए धार, उज्जैन, रतलाम, मन्दसौर, भिंड, मुरैना आदि जिलों से होकर राजस्थान में प्रवेश करती है। राजस्थान में चम्बल चित्तौड़गढ़ के चौरासीगढ से बहती हुई कोटा, बूंदी, सवाईमाधोपुर, करोली और धौलपुर जिलों से निकलती है। जिसके बाद ये राजस्थान के धौलपुर से दक्षिण की ओर

अंतराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष: भारत में महिलायें सुरक्षित क्यों नहीं हैं ? Why Women are not safe in India? views by Abhinav Singh

 Why Women are not safe in India? भारत में महिलायें सुरक्षित क्यों नहीं हैं ? 

                आज का अवसर केवल औपचारिकता का अवसर नहीं है। यह चिंतन और स्मरण की वेला है। हम विकास का दंभ भरने लगे हैं और पाश्चात्य संस्कृति और सभ्यता का अनुसरण इस हद तक करने लगे हैं कि पाश्चात्य संस्कृति और सभ्यता हमारे घर के खिड़की दरवाजे तोड़ने के साथ साथ घर की स्वीकारें तोड़ने को भी तैयार खड़ी हैं। विकास के बढ़ते पैमाने ने हमारी नैतिकता का स्तर इस हद तक गिराया है कि हम संवेदना शून्य होते चले जा रहे हैं। हालात ये हैं कि गणतंत्र दिवस पर जिस शान ओ शौकत से हमारी आंखें चुंधिया रही हैं। उसी से कुछ ही दिन पूर्व मध्य प्रदेश में मानवता की हत्या के देने वाली एक घटना सामने आई। उमरिया जिले में अपनी मां से मिलने आई 13 वर्षीय लड़की का अपहरण किया गया। अपहरण करने वाले 2 युवकों ने लड़की के साथ बलात्कार  किया। लेकिन बात सिर्फ यही नहीं है, बात अलग ये है कि जब लड़के, उस लड़की को लेकर पास के ढाबे के पास गए। ढाबे वाले को जब कुछ मामला गड़बड़ लगा तो उसने लड़की से पूछना शुरू किया जिससे घबरा कर दोनों लड़के उस लड़की को वहीं पर छोड़ कर भाग गए। यहां तक तो आपने हर समाचार पत्र, हर न्यूज चैनल में पढ़ा या सुना ही होगा। लेकिन उन लड़के के जाने के बाद उस ढाबे वाले ने उस लड़की के साथ बलात्कार किया। उस ढाबे पर मौजूद उसके 4 साथियों ने भी उस लड़की के साथ बलात्कार किया। वहां से जान छुड़ा कर भागी वह बच्ची एक ट्रक के सामने आ गई लेकिन मरी नहीं। ट्रक वाले ने उसकी हालत देख कर उससे उसका हाल पूछा और जब लड़की ने अपनी आप बीती सुनाई तो ट्रक ड्राइवर ने भी उसी लड़की के साथ Rape किया।

               जब मैंने यह खबर पढ़ी तो मेरी तो समझ में नहीं आया कि कैसी प्रतिक्रिया दूं? क्या लिखूं? क्या कहूं? बुद्धि जड़ हो गई, आक्रोश से मेरे कान लाल हो गए थे। निराशा से हाथ कांपने लगे थे, और हताशा के या पता नहीं किस भाव से  मेरी आंखे नम हो गई थी? आखिर कौन लगती है वो लड़की मेरी? आखिर क्यों मैं उसकी पीढ़ा से इतना बेचैन होने लगा। आखिर क्यों मेरे अंदर भावनाओं का उद्वेग इस कदर हावी हुआ की मेरी लेखनी, मेरे विचार सब कुंद पड़ गए। कई दिन हुए इस घटना को हुए, लेकिन किसी न्यूज चैनल ने इस खबर को दिखाया तक नहीं।  आखिर क्यों ? क्या सिर्फ इसलिए कि वो लड़की दिल्ली, मुंबई जैसे बड़े शहरों से नहीं थी।  क्या सिर्फ इसलिए कि उसकी खबर दिखाना इनकी TRP में फिट नहीं बैठता? या सिर्फ इसलिए कि यदि ये खबर अभी दिखा दी तो देश में बाकि अन्य मुद्दों से ध्यान हट जायेगा? 

                क्या देश का मीडिया सिर्फ वही ख़बरें दिखलाना चाहता है जो उसके एजेंडे में फिट होती हैं? क्या ये खबर कोई खबर नहीं? क्या इस बड़े देश के छोटे शहर में रहने वाली लड़कियों की समस्याएं इस देश की नहीं हैं?

                 जनवरी महीने में घटने वाली ये इस प्रकार की कोई एकलौती घटना नहीं है, अकेले मध्य प्रदेश में इस महीने 3 शीलभंग की घटनाएं सामने आ चुकी हैं।  हरियाणा में तो एक पिता ने अपनी ही बेटी का कई बार बलात्कार किया।   शायद ऐसा कोई दिन नहीं रह गया है जब सुबह सुबह अखबार में Rape की घटनाएं न पढ़ने को मिलती हो।  ऐसा क्या होता जा रहा है समाज में जिससे ये घटनाएं इतनी आम बनती जा रही हैं। जब इन मुद्दों पर सोचता हूँ तो विवेक पता नहीं कहाँ चला जाता है, एक खीझ , एक कुढ़न, एक बेबसी लाचारी दिमाग में घर करने लगती है और बुद्धि पर ताला लग जाता है।  आखिर हो भी क्यों न।  आखिर हम भी तो इसी समाज में रहते है।  इसी समाज में जीते हैं जहां महिलायें तो क्या बच्चियां और यहां तक की नवजात तक सुरक्षित नहीं हैं। मीडिया से क्या ही उम्मीद कर सकते हैं, मैं तो बस यही कहना चाहूंगा की लोकतंत्र के इस चौथे स्तम्भ में दीमक लग चुकी है।  और अगर कुर्सी का एक पैर  बेकार होने लगे तो कुर्सी गिरने में ज़्यादा देर नहीं लगती। 

  •  इतिहास के पहलू से :-         

                          यह तो रही बात खबर या घटना को समाज को दिखलाने की बात। असली समस्या की जड़ तो ये है की आखिर ये घटनाएँ हो ही क्यों रही है। समाज का नैतिक पतन आखिर क्यों हो रहा है। इसके मुझे कोई कारण दिखाई नहीं देते।  हाँ लेकिन इतना जरूर कहना चाहूंगा कि समाज को अपनी पीढ़ियों को स्वयं सिखाना होगा, कोई बाहरी कभी कोई काम की बात नहीं सिखा सकता ।  अंग्रेजों ने 200 साल हमपर राज किया और इन्ही 200 सालों में भारतीय समाज का सबसे अधिक पतन हुआ।  ऐसा नहीं की भारत पर अंग्रेजों से पहले किसी विदेशी ने राज नहीं किया परन्तु समाज का आर्थिक और चारित्रिक पतन जितना अंग्रेजों के ज़माने में हुआ उतना शायद शायद उनसे पहले के 800 वर्षों में नहीं हुआ।  भारत में बलात्कार की घटना प्राचीन समय में कभी सुनने में नही मिली। यह हमारी सभ्यता का हिस्सा ही नहीं हैं। प्राचीन काल में युद्ध में जीतने वाला राजा केवल नगरों को ध्वस्त तो करता था लेकिन कभी किसी राजा ने विजित राज्य की स्त्रियों पर नज़र भी डाली हो ऐसा कहीं कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं है। तो सवाल ये उठता है कि भारत में ये घिनौनी प्रथा आई कहाँ से ?

                 समाज में किसी स्त्री या लड़की कि अस्मिता पर कुदृष्टि डालने की पहली घटना 713 में मोहम्मद बिन क़ासिम द्वारा की गई ऐसा प्रमाण मिलता है। जब सिंध को जीतने के बाद सिंध नरेश राजा दाहिर की हत्या करने क्वे बाद वह उनकी दोनों पुत्रियों सूर्या और परिमला को खलीफा को भेंट करने के उद्देश्य से अरब ले गया।  खैर वहाँ जाकर उससे भारत्या बालाओं ने कैसे बदला लिए यह एक अलग विषय है, लेकिन भारत में इस प्रथा का प्रारम्भ करने वाला वह पहला यथार्थ व्यक्ति था। उसके बाद अन्य अरबी आक्रांताओं ने भारतीय महिलाओं की अस्मिता लूटने की कोशिश की लेकिन भारतीय नारियां जंगल की वो शेरनियां हैं जो जंगल भरा होने पर शांत रहती हैं लेकिन यदि कोई उनकी शांति भंग करने की कोशिश करे तो उसको चीर कर रख देती हैं।  रानी पद्मिनी का जौहर सबको याद ही होगा। राणा रतन सिंह की छल से हत्या करने के बाद कैसे रानी को अपनी अस्मिता एवं सम्मान बचने के लिए अग्नि कुन को गले लगाना पड़ा वो घटना भारतीय महिलाओं को सतीत्व एवं भारतीय पुरुषों को स्वाभिमान की शिक्षा आज तक देती आ रही है।  अकबर के समय भी रानी कर्णावती को जौहर की आग में जलना पड़ा था परन्तु भारतीय किताबें अकबर का यह रूप नहीं पढ़तीं।  क्यूंकि इससे उनका एजेंडा सिद्ध नहीं होगा।

  • वर्तमान समय में :-

                           भारतीय जनमानस को नैतिक शिक्षा का पाठ केवल उनके अभिवाहक ही पढ़ा सकते हैं।  लेकिन क्या स्कूलों की इस के प्रति कोई ज़िम्मेदारी नहीं है ? क्या पश्चिमी सभ्यता में इसके लिए कोई पाठ नहीं ? क्या भारतीय बच्चों को महिलाओं की इज्जत करनी चाहिए ये कौन सिखाएगा? इसपर कोई कुछ बोलने, करने को क्यों राज़ी नहीं होता? यदि उन लोगों को इन सबके बारे में पता होता तो वो ये कृत्य करते ? यदि यह घिनौना काँड ना हुआ होता तो आज वह बच्ची सुरक्षित अपनी माँ के साथ खेल रही होती और भारतीय समाज को स्वयं की नज़रों मर लज्जित न होना पड़ता।
                बसे मजे की बात तो यह है कि दिल्ली  में निर्भया का मामला सामने आया तो लाखों कि संख्याओं में भारतीय जनता विशेषकर युवा दिली कि सड़कों पर उतर आये थे और उन्होंने इस कृत्या के खिलाफ जमकर विरोध और आक्रोश दिखाया था। तब लगा था कि शायद ये कृत्य अंतिम होगा और समाज में सुधार आएगा।  लेकिन सहानुभूति में शाम को कैंडल मार्च निकलने वाले यह जागरूक भारतीय युवा शाम ढलते ही पास के एक बढ़िया से होटल में कैंडल लाइट डिनर करके चले गए। सबने सोशल मीडिया पर प्रदर्शन कि फोटो शेयर की, लाखों ने भाषण दिए मगर अफ़सोस प्रदर्शन केवल फैशन के तौर पर किया गया था।  और फैशन की एक उम्र होती है, आज के दौर में तो कोई भी फैशन बहुत जल्दी आउट डेटेड हो जाता है।  निर्भया का फैशन मार्च भी बस दिसम्बर 2012 की सर्द रातों में हाथों को मलते हुए  मुँह से निकले धुएं की तरह धुआँ हो गया।  उसके बाद उससे भी अधिक नृशंश मामले सामने आये, लेकिन नतीजा वही धाक के तीन पात। समाज के एक नेताजी ने यह तक कह डाला कि बलात्कार के मामले में लड़कों से गलती हो जाती है। अब उनको कौन समझाए कि बच्चन साब कह गए हैं कि न  का मतलब ना  होता है ये बात किसी नहीं भाषा में समझे जा सकती है।  केवल मौखिक अभिव्यक्ति ही इसका माध्यम नहीं, शारीरिक अभिव्यक्त इसका सबसे प्रखर विरोध है लेकिन जब सर पर हैवान होता है तो क्या सही क्या गलत इसका कौन पता रखता है।  और फिर जब सपोर्ट में नेताजी आ जाये तब तो कहना ही क्या ! क्या समाज का जिम्मेदार नागरिक होने के कारण नेताजी को इस प्रकार कि बयानबाजी ककरने का अधिकार है ? और फिर जब आप भूतपूर्व रक्षा मंत्री रहें हो तब तो आपको सभी नागरिकों की सुरक्षा का सामान रूप से ध्यान रखना चाहिए।  लेकिन यदि नेताजी जाँच की मांग कर लेते तो वोट बैंक न हो जाता उनका सो कैसे वो कहें की लड़को को सजा होनी चाहिए, आखिर अगली बार चुनाव भी तो जीतना है न।

  • आंकड़ों की जुबानी:-

                        यह तो हुई बातों वाली बात, अब ज़रा आंकड़ों वाली बात भी कर लेते हैं।  11 राज्यों के छात्रों कि सोच के आधार पर एक सर्वे कि रिपोर्ट के मुताबिक 65% छात्रों का मानना है कि अलग अलग के धर्मों के कपल्स को नहीं मिलना चाहिए, 44% छात्रों का मानना है कि महिलाएं अपने साथ हो रही हिंसा को स्वीकार करें और 51% का मानना है कि महिलाएं केवल घर का काम काज संभालें।
                2019 की रिपोर्ट के मुताबिक 32260 मामले केवल Rape के दर्ज हुए हैं, भारत में हर 15 मिनट्स में एक रेप की घटना सामने आती है।  94% पीड़िता को जानने वाले ही घटना को अंजाम देते हैं, इससे ये तो साफ़ है की ये कोई घटना नहीं है बल्कि मानसिक विकृति है जो धीरे धीरे बढ़ती जा रही है। निर्भया केस के बाद सोचा था की न्य कानून बनेगा जिससे डर का माहौल बनेगा परन्तु, नए नियम के बाद तो जैसे इस मामलों की बाढ़ सी आ गई हो।  न्यायपालिका को चाहिए की इन मामलों में कानून इतने सख्त बनाये जिससे एक उदाहरण स्थापित हो जैसे रंगा बिल्ला का हुआ था लेकिन समाज समय के साथ भूलने लगता है इसलिए उसको याद दिलाने का जिम्मा भी न्यायपालिका का ही होना चाहिए। 
                 याद रखें ये विश्व के सबसे युवा देश के आंकड़े हैं।  बिडंबना यह है कि हमारे देश में किसी एक पर्टिकुलर डेट को याद रखा जाता है बाकि के दिन हम कुछ भूल जाये हैं।  बलात्कारियों को सजा मिलनी चाहिए लेकिन लड़कियों के साथ कि इस बलात्कारी सोच को कब सजा मिलेगी? यह हमको खुद अपने से पूछना है।

  • महिलायें भी समझें जिम्मेदारी :-

                          मातृवत पर द्रष्टारश्यच पर द्रव्येषु लोष्ट्वट अर्थात पराई स्त्री को माता एवं पराये धन को मिटटी का ढेला समझने वाला ये समाज आज महिलाओं के साथ हुए आपराधिक मामलों के विश्व के शीर्ष स्थानों में बड़ी ही बेशर्मी से बैठ जाता है तो इसके जिम्मेदार हम स्वयं भी हैं।  हमने स्वयं ही अपनी पीढ़ियों को अपना ऐतिहासिक महत्तव एवं महिलाओं के सम्मान की परम्परागत रीतियां उनको बताई ही नहीं।  यदि समाज को सुधारना  है तो सबसे पहला कदम स्वयं महिलाओं को उठाना होगा।  उनको समझना होगा की शिवा को छत्रपति शिवाजी महाराज बनाने की पहली सीढ़ी उनकी माँ जीजाबाई ही थीं।  सबसे पहले स्वयं की विचारधारा को शुद्ध कीजिये, टेलीविज़न पर दिखाया जाने वाला स्वांग, आपका गौरवमई इतिहास नहीं है, आपका ऐतिहासिक सम्मान नहीं है।  अंतर को पहचानिये, किताबें उठाईये क्यूंकि केवल लड़किओं को  सेल्फ डिफेन्स सिखवने से काम नहीं चलेगा, लड़को को शुरू से ये समझाना होगा की लड़कियों की इज्जत कैसे की जाती है।  संस्कार बहुत ज़रूरी हैं क्यूंकि मेरी मां ने मुझे सिखाया की किसी लड़के के लड़कियों के बारे में विचार उसके नहीं उसकी माँ की परवरिश के नतीजे होते हैं।  लड़को को भी चाहिए कि यदि पौरुष का यदि इतना ही प्रदर्शन करना है तो किसी मैदान में दौड़ लगा ले इससे दो फायदे होंगे। पहला तो भारत का खेलों में प्रदर्शन सुधरने की पूरी गारंटी और दूसरा भारतीय सेना में जवानों में देसी दम यहीं से भरेगा।
                भारतीय मीडिया हाउसेस को चाहिए कि वो वोट कि ख़बरें दिखाना छोड़ कर पत्रिकारिता भरी ख़बरें दिखाना शुरू करें अन्यथा भारतीय समाज का इस लोकतंत्र से हमेशा हमेशा के लिए भरोसा टूट जायेगा और बिना पत्रिकारिता के लोकतंत्र संतुलित नहीं रह सकता। उनको यह समझना पड़ेगा कि हमारे देश को दुर्जनो कि दुष्टता से इतना नुक्सान नहीं पहुँचता, जितना सज्जनों कि निष्क्रियता से पहुँचता है।

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जिस 21 वर्षीय यशस्वी जयसवाल ने ताबड़तोड़ 98* रन बनाकर कोलकाता को IPL से बाहर कर दिया, उनका बचपन आंसुओं और संघर्षों से भरा था। यशस्‍वी जयसवाल मूलरूप से उत्‍तर प्रदेश के भदोही के रहने वाले हैं। वह IPL 2023 के 12 मुकाबलों में 575 रन बना चुके हैं और ऑरेंज कैप कब्जाने से सिर्फ 2 रन दूर हैं। यशस्वी का परिवार काफी गरीब था। पिता छोटी सी दुकान चलाते थे। ऐसे में अपने सपनों को पूरा करने के लिए सिर्फ 10 साल की उम्र में यशस्वी मुंबई चले आए। मुंबई में यशस्वी के पास रहने की जगह नहीं थी। यहां उनके चाचा का घर तो था, लेकिन इतना बड़ा नहीं कि यशस्वी यहां रह पाते। परेशानी में घिरे यशस्वी को एक डेयरी पर काम के साथ रहने की जगह भी मिल गई। नन्हे यशस्वी के सपनों को मानो पंख लग गए। पर कुछ महीनों बाद ही उनका सामान उठाकर फेंक दिया गया। यशस्वी ने इस बारे में खुद बताया कि मैं कल्बादेवी डेयरी में काम करता था। पूरा दिन क्रिकेट खेलने के बाद मैं थक जाता था और थोड़ी देर के लिए सो जाता था। एक दिन उन्होंने मुझे ये कहकर वहां से निकाल दिया कि मैं सिर्फ सोता हूं और काम में उनकी कोई मदद नहीं करता। नौकरी तो गई ही, रहने का ठिकान

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