सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

Book Review: Chitralekha by Bhagwati Charan Verma

 चित्रलेखा – एक दार्शनिक कृति की समीक्षा लेखक: भगवती चरण वर्मा   प्रस्तावना   हिंदी साहित्य के इतिहास में *चित्रलेखा* एक ऐसी अनूठी रचना है जिसने पाठकों को न केवल प्रेम और सौंदर्य के मोह में बाँधा, बल्कि पाप और पुण्य की जटिल अवधारणाओं पर गहन चिंतन के लिए भी प्रेरित किया। भगवती चरण वर्मा का यह उपन्यास 1934 में प्रकाशित हुआ था और यह आज भी हिंदी गद्य की कालजयी कृतियों में गिना जाता है। इसमें दार्शनिक विमर्श, मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और सामाजिक यथार्थ का ऐसा संलयन है जो हर युग में प्रासंगिक बना रहता है । मूल विषय और उद्देश्य   *चित्रलेखा* का केंद्रीय प्रश्न है — "पाप क्या है?"। यह उपन्यास इस अनुत्तरित प्रश्न को जीवन, प्रेम और मानव प्रवृत्तियों के परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करता है। कथा की बुनियाद एक बौद्धिक प्रयोग पर टिकी है जिसमें महात्मा रत्नांबर दो शिष्यों — श्वेतांक और विशालदेव — को संसार में यह देखने भेजते हैं कि मनुष्य अपने व्यवहार में पाप और पुण्य का भेद कैसे करता है। इस प्रयोग का परिणाम यह दर्शाता है कि मनुष्य की दृष्टि ही उसके कर्मों को पाप या पुण्य बनाती है। लेखक...

काग के भाग बड़े सजनी

 पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’

कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’
सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’
कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’
खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। 
दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया। मैंने दो एक बार सातवें दशक की किसी हीरोइन की तर्ज पर ‘और लताजी की आवाज में ‘चल कान न खा’’ कहा भी । पर वह कहां माननेवाला था। पित्पक्ष चल रहा है और वह मेरे किसी पुरखे की भूखी आत्मा की तरह मेरे पीछे मुक्ति के लिए पड़ा था। मगर मुक्ति अगर मिलनी होती तो एक ही पित्पक्ष में मिल जाती , पितृपक्ष बार बार क्यों आता। फिर वही पितृ , फिर वही तर्पणकर्ता ?...फिर वही कौवे...कौवे......!? इतने में फिर एक कौवा आया और मेरे कान के पास आकर जोर से चिल्लाया‘‘कांव कांव !!’’
मैंने झल्लाकर कहा -‘‘क्या है यार! बोर क्यों कर रहे हो। जाओ यहां से। मैं तुम्हे दाना नहीं डालनेवाला। न पूरी , न खीर...हमारे सारे पितृ खा पीकर मरे हैं। सब इतने चलते पुरजे थे कि एक जगह बैठकर नहीं रहते थे। अब तक तो दो तीन बार पैदा होकर स्वर्गीय हो चुके होंगे। जवान होकर किसी पर मर जाने की उनकी बुरी आदत थी। कोई कौवा नहीं बना होगा। क्या बने होंगे यह तुम नहीं समझोगे।’’ इतना कहते हुए मैं अंदर आ गया। दिमाग में मगर बचपन में पढ़ी कविता गूंजने लगी-

धूर भरे अति सोहत स्याम जू, तैसी बनी सिर सुंदर चोटी।
खेलत खात फिरैं अँगना, पग पैंजनिया, कटि पीरी कछोटी॥
वा छबि को रसखान बिलोकत, वारत काम कला निधि कोटी।
काग के भाग बड़े सजनी, हरि हाथ सों लै गयो माखन रोटी॥


-अर्थात् एक सखि दूसरी सखि से कहती है कि हे सजनी! आज सुबह सुबह ही मैं नंद महाराज के घर चली गई और वहां मैंने क्या देखा कि सांवरे श्याम धूल से भरे और सने हुए हैं, मगर बहुत सुन्दर लग रहे हैं। उनके बड़े बड़े बालों की चोटी भी बड़ी सुन्दर लग रही है। वे खेल-खेल में खा रहे हैं और खा-खा कर खेल रहे हैं। सजनी! मेरा ध्यान उनके पैरों में की पैंजनियां पर है जो बज रही हैं और कमर पर भी है जिसमें पीले रंग की कछौटी यानी हगीज़ बंधी हुई है। रसखान(कृष्ण) की उस छबि  को रसखान ने ( मैंने) देखा ( सुनो सखी, यहां रसखान में श्लेष अलंकार है। रसखान यानी रस की खान ..रस का भंडार। दूसरा अर्थ कवि का नाम ..कवि रसखान..।) खैर सजनी! उनकी छवि पर उसी समय रसखान ने कामकला के सागर करोड़ों कामदेवों को उन पर नयौछावर कर दिया। हे सखी ! जिस समय यह देखादेखी और न्योछावर करने का कार्यक्रम चल रहा था, उसी समय वह घटना घटी, जिसका इतना हल्ला हो रहा है। यानी वही कौवे की हरकत...अच्छे भले खेलते हुए कन्हैया के हाथ से वह रोटी छीनकर एक कौवा ले उड़ा , जिसमें मक्खन लगा हुआ था। रसखान कह रहें कि कौवा बड़भागी है जिसने हरि के हाथ से मक्खन-चुपड़ी रोटी छीन ली।
ठीक कह रहे हैं रसखान। मैं आह भरकर सोच रहा हूं। छीननेवाले बड़े भाग्यशाली होते हैं। बड़े भी और भाग्यशाली भी। मैं तो उस भुच्च संस्कारों का पालतू जीव हूं जिसमें छीनना पाप है। छीननेवालों को अपनी हिस्सा दे देना पुण्य है। ‘देनेवाला हाथ हमेशा ऊपर होता है’, इस आत्मघाती संस्कृति के हम चराग पुरुष हैं। चराग होने के चक्कर में अपना ही घर फूंककर फुटपाथ पर बैठे आल्हा गाते रहते हैं। कबीर भी उकसाते रहते हैं-चलो हमारे साथ। हम कटोरा लेकर उनके पीछे हो लिए।
इधर रसखान खुश हो रहे हैं कि कौआ हरि के हाथ से रोटी ले गया। टीवी में आ रहा है कि कौआ हमारे पूर्वज हैं। शास्त्रों में लिखा है। पंडित ने पहले कहा त्रेता से यह परम्परा चल रही है। किसी ने उसे बताया कि त्रेता के पहले सतयुग होता है , शास्त्रों में लिखा है तो उसने सुधार लिया। कहने लगा ,सतयुग से कौआ हमारे पितर हैं। डार्विन ने शास्त्रों की दुर्गत कर दी। उसने कहा -हम बंदरों से विकसित हुए हैं। बंदर हमारे पितर थे। ले भई ! हम उसके विकासवाद की लाज रखने के लिए कौओं की बजाय बंदरों की औलाद बन गए। हमारी वल्दियत बड़ी साफ्ट किस्म की है। समय पड़ता है तो हम गधे को भी बाप बना लेते हैं। बंदर और कौआ क्या चीज़ है। 
फिल्हाल हम पितृपक्ष मना रहे हैं। कौओं को अपना पितर मानकर उन्हें खाना खिला रहे है। एक ही कोआ मुहल्ले के कई घरों में घूम रहा है। शुक्ला , खान , डेनियल ,अरोरा .. वह सबका पितर है। कईयों का आजा दादा है। तभी हम एक दूसरे को भाई कहते हैं और हमारा भाईचारा बना रहता है। हमारी संस्कृति विश्वबंधुत्ववाली है। हमारी दृष्टि की दाद दीजिए। कबूतरों को हम पोस्टमैन बनाते हैं और कौओं से कहते हैं पिताजी ! जाइये ! पूरी दुनिया को हमारा भाई बनाइये ! ये कौअे विदेश भी जाते होंगे। कई एंडरसन ,एनरान , बारबरा , स्वेतलाना वगैरह हमारे पितरों की हींग और फिटकरी लगे बिना हमारे वंशज हो गए हैं। भारत बहुत उदारवादी देश है। मेरा भारत महान है।
कहते हैं -देवता लोग आदमी बनने के लिए तरसते हैं। खासकर भारत का आदमी। पर मेरे पास प्रमाण है कि देवता लोग कौआ बनने के लिए भी तरसते हैं। स्वर्ग के राजा इंद्र का बेटा जयंत कौआ बनकर माता सीता के पास आशीर्वाद लेने आया था। उनके पैर पड़ने आया था। श्री राम गलत समझ गए। उन्होंने गलतफहमी में उसकी एक आंख फोड़ डाली। 
उधर कौओं के हाई ब्रीड चीलों ने श्री राम का बड़ा साथ दिया। जटाऊ रावण से भिड़ गया और घायल होकर मर गया। बाद में उसके जुड़वा भाई संपाती ने आकाश में उड़कर देख दिया कि अपहृत माता सीता कहां हैं। बंदर, भालू , गिलहरियां , मगरमच्छ और मच्छर तक को गोस्वामी जी ने रामचरित में मित्रवत्-भूमिकाएं (फ्रेंडली एपीयरेन्स) दी हैं। कौअे को तो ऋषि भुशुण्डि की चरित्र भूमिका दी है। भगवान विष्णु के वाहन-सह-चालक गरुण उनके प्रिय श्रोता हैं।
देखिए , धीरे धीरे कौअे का व्यक्तित्व कैसा खुलते जा रहा है। 
मुझे याद है कि आठवीं में मैं संस्कृत का बड़ा मेधावी छात्र था। भार्गव गुरुजी अब नहीं रहे वर्ना वे इसका प्रमाण देते। खैर जाने दीजिए...यही क्या कम है कि एक श्लोक मैंने तब पढ़ा था और वह आज भी याद है। श्लोक है- 
काक-चेष्टा, वको-ध्यानं ,श्वान-निद्रा तथैव च ,
अल्पाहारी, गृहत्यागी विद्यार्थीं पंच लक्षणम् ।।

-अर्थात् कौअे जैसी कोशिशें करते रहो कि बार बार भगाए जाने पर भी उड़-उड़कर आओ या जाओ , बगुले जैसा ध्यान करो कि जैसे ही मछली सीमा में आई कि मारा झपट्टा। कुत्ते की नींद यानी सो रहे हैं मगर जरा सी आहट हुई कि लगा ,कहीं ये वो तो नहीं। अल्पाहारी यानी अपने घर में कम खाना और गृहत्यागी यानी अपना घर छोड़कर दूसरों के घर में कम्बाइंड स्टडी करना। ये पांच लक्षण बहुतों के बहुत काम आते रहे हैं। मुझे यह बड़ा व्यावहारिक श्लोक मालूम पड़ता है। एकदम प्रेक्टीकल। दुनिया का खूब अध्ययन करके किसी विद्वान ने यह श्लोक गढ़ा होगा। यहां उल्लेखनीय यह है मित्रों ! कि कौआ अंकल (पुरखे ) इस श्लोक में भी सम्मानपूर्वक फ्र्रंट सीट पर बैठै हैं। श्लोक उन्हीं से शुरू हुआ- ‘काक चेष्टा.......।’
कौआ शेख फरीद को भी प्रिय था। उसपर उन्होंने कविता लिखी। दोहा है -कागा सब तन खाइयो, मेरा चुन चुन खइयो मास
दो नैना मत खाइयो जामे पिया मिलन की आस। 
 0
विरह बावरी मीरां ने भी कौवे को अपना संदेश वाहक बनाया था ।
कृष्ण को मर्मान्तक पीड़ा के माध्यम से बुलाने के लिए उन्होंने कौए से कहा :
प्रीतम कूं पतियां लिखूं रे कागा तूं ले जाय। 
प्रीतम सूं जा यूं कहै रे थांरि बिरहण धान न खाय॥

 कागा यानी काक.. कौआ। पहले काक का काका हुआ होगा, बाद में अपभ्रंश के नियम से कागा हो गया होगा। काका पिता के छोटे भाई को कहते हैं।  पंजाब में तो बेटे को काका कहते हैं। साई लोग तो बात-बात पर एक दूसरे को काका कहते है। अब तो साई का पर्याय ही काका हो गया है।
कुलमिलाकर ,काका यानी कागा यानी कौआ हमारी सांस्कृतिक पहचान है। गंदी संदी चीजें खाना उसका स्वभाव है। हम उससे सालभर घृणा करते हैं और फिर सोलह दिन उसकी पूजा करते हैं। किसी पक्षी को यह स्थान प्राप्त नहीं है। कोई हमारा पुरखा या पूर्वज नहीं है। बंदर को चिड़ियाघर और तीर्थ स्थलों पर जरूर हम केला और चना देते हैं। 
कौआ हमारे प्रेयसियों का प्रिय रासिद है। रासिद यानी रहस्य की बातों को चिट्ठी में लिखनेवाला, पोस्टमैन ,संवदिया। एक गीत है- ‘भोर होते कागा पुकारे काहे राम , कौन परदेसी आएगा मोरे गाम।’
-एक सखी डॉ.रामकुमार से पूछती है कि हाय राम ! सुबह सुबह यह कौआ क्यों चीख रहा है। बताइये न कौन परदेशी हमारे नगर आनेवाला है।’ 
राम जब जनक-ग्राम पहुंचे थे तो जानकी के कमरे के सामने कई कौअे ऐसे ही चिल्लाए होंगे। तब यह गाना बना। एक दूसरा गाना भी बना। विवाह योग्य कन्या चुपके-चुपके योग्य वर मिल जाने पर अपनी मां को इशारे से बता रही है-  माई नी माई , मुंडेर पै मेरे , बोल रहा है कागा
जोगन हो गई तेरी दुलारिन मन जोगी संग लागा। 

- इस कविता में थोड़ा कन्फ्यूजन जरूर है कि जोगन हुई तो जोगी से मन लग गया कि जोगी से मन लग गया तो जोगन हो गई। हालांकि ले दे के बात तो एक ही घटित हुई। यानी छोरी का लम्पट जोगी से मन लग गया क्योंकि मुंडेर पर कागा बोल रहा है।
इसीलिए गांव में कौओं को भगाने के लिए बिजूका लगाया जाता है जिसे अन्य शब्दों में कागभगौड़ा भी कहते हैं। कौओं को भगानेवाला झूठमूठ का आदमी। आगे चलकर इसी झूठ से दूसरा किस्सा बना। लोगों में ‘झूठ बोले कौआ काटे ’एक कहावत बन गई। यानी कौअे इस झूठ को समझ गए और आदमियों को काटने लगे।
और भी बहुत सी बातें हैं जो आपसे शेअर करनी है मगर नौकरी में जाने का वक्त हो गया है। देखूं कहीं घरवालों ने सारा खाना इन कौओं को तो नहीं खिला दिया। यह आशंका अभी और दस ग्यारह 
दिन रहेगी। फिर निश्चिंतता से लिख सकूंगा कि मैं अकेला कौआ होउंगा जो मजे से पेटभर कर खा सकूंगा और सरकारी कार्यालय में जी भर ऊंघ सकूंगा। तब तक आप भी अपने अपने कौओं को निपटाइये, इस संस्कृत-निष्ठ निवेदन के साथ कि-
काक चंचु मार मार क्षीर में सुहास के , 
फिर अमा शिविर लगाने आ गई खवास के ।

शब्दावली: 
काक - कौआ , 
चंचु - चोंच , 
क्षीर - खीर , 
सुहास - हंसी खुशी , 
अमा - अमावस्या, 
शिविर - कैंप ,
खवास - खाने की घोर इच्छा। अघोरी।

टिप्पणियाँ

Best From the Author

Book Review: Chitralekha by Bhagwati Charan Verma

 चित्रलेखा – एक दार्शनिक कृति की समीक्षा लेखक: भगवती चरण वर्मा   प्रस्तावना   हिंदी साहित्य के इतिहास में *चित्रलेखा* एक ऐसी अनूठी रचना है जिसने पाठकों को न केवल प्रेम और सौंदर्य के मोह में बाँधा, बल्कि पाप और पुण्य की जटिल अवधारणाओं पर गहन चिंतन के लिए भी प्रेरित किया। भगवती चरण वर्मा का यह उपन्यास 1934 में प्रकाशित हुआ था और यह आज भी हिंदी गद्य की कालजयी कृतियों में गिना जाता है। इसमें दार्शनिक विमर्श, मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और सामाजिक यथार्थ का ऐसा संलयन है जो हर युग में प्रासंगिक बना रहता है । मूल विषय और उद्देश्य   *चित्रलेखा* का केंद्रीय प्रश्न है — "पाप क्या है?"। यह उपन्यास इस अनुत्तरित प्रश्न को जीवन, प्रेम और मानव प्रवृत्तियों के परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करता है। कथा की बुनियाद एक बौद्धिक प्रयोग पर टिकी है जिसमें महात्मा रत्नांबर दो शिष्यों — श्वेतांक और विशालदेव — को संसार में यह देखने भेजते हैं कि मनुष्य अपने व्यवहार में पाप और पुण्य का भेद कैसे करता है। इस प्रयोग का परिणाम यह दर्शाता है कि मनुष्य की दृष्टि ही उसके कर्मों को पाप या पुण्य बनाती है। लेखक...

The Story of Yashaswi Jaiswal

जिस 21 वर्षीय यशस्वी जयसवाल ने ताबड़तोड़ 98* रन बनाकर कोलकाता को IPL से बाहर कर दिया, उनका बचपन आंसुओं और संघर्षों से भरा था। यशस्‍वी जयसवाल मूलरूप से उत्‍तर प्रदेश के भदोही के रहने वाले हैं। वह IPL 2023 के 12 मुकाबलों में 575 रन बना चुके हैं और ऑरेंज कैप कब्जाने से सिर्फ 2 रन दूर हैं। यशस्वी का परिवार काफी गरीब था। पिता छोटी सी दुकान चलाते थे। ऐसे में अपने सपनों को पूरा करने के लिए सिर्फ 10 साल की उम्र में यशस्वी मुंबई चले आए। मुंबई में यशस्वी के पास रहने की जगह नहीं थी। यहां उनके चाचा का घर तो था, लेकिन इतना बड़ा नहीं कि यशस्वी यहां रह पाते। परेशानी में घिरे यशस्वी को एक डेयरी पर काम के साथ रहने की जगह भी मिल गई। नन्हे यशस्वी के सपनों को मानो पंख लग गए। पर कुछ महीनों बाद ही उनका सामान उठाकर फेंक दिया गया। यशस्वी ने इस बारे में खुद बताया कि मैं कल्बादेवी डेयरी में काम करता था। पूरा दिन क्रिकेट खेलने के बाद मैं थक जाता था और थोड़ी देर के लिए सो जाता था। एक दिन उन्होंने मुझे ये कहकर वहां से निकाल दिया कि मैं सिर्फ सोता हूं और काम में उनकी कोई मदद नहीं करता। नौकरी तो गई ही, रहने का ठिकान...

The reality of Indexes & Rankings

  बहुत से लोगों की जिज्ञासा रहती है कि यह डीप स्टेट क्या होता है ?  और सच में कोई डीप स्टेट होता है कि नहीं  अभी अमेरिका की नई सरकार जो यूएस एड से पैसे लेने वाले संस्थानों और लोगों के नाम का खुलासा कर रही है यही आपको डीप स्टेट को समझने में बहुत आसानी हो जाएगी  इसके अलावा रॉकफ़ेलर फाउंडेशन, फोर्ड फाउंडेशन जॉर्ज सोरेस का ओपन सोर्स फाउंडेशन और अमेरिकी सरकार का यूएस एड असल में यही डीप स्टेट होता है  मतलब यह की आप स्टेट को अंदर तक हिलाने के लिए बहुत लंबे समय की प्लानिंग करिए  अभी पता चला कि पूरी दुनिया में जो पत्रकारों यानी मीडिया की स्वतंत्रता का रैंकिंग जारी करने वाली एक निजी संस्था रिपोर्टर्स विदाउट बाउंड्री या पूरे विश्व में हंगर इंडेक्स जारी करने वाली आयरलैंड की  एक क्रिश्चियन मिशनरी संस्था वॉल्ट हंगर स्ट्राइक इन सबको यूएस एंड और रॉकफेलर फाउंडेशन से बहुत मोटा पैसा मिला है  और बदले में इन लोगों ने क्या किया की तीसरी दुनिया के डेमोक्रेटिक देश जैसे भारत ब्राजील वियतनाम में भुखमरी को सोमालिया बांग्लादेश और इथोपिया से भी खराब रैंकिंग दिया और तमाम देशों...

Kohli VS Sontas

 विराट भाई, गियर बदल लो! सैम कोंस्टस वाले मामले पर स्टार स्पोर्ट्स जिस तरह सुबह से कोहली को डिफेंड कर रहा था, उसे देखकर मुझे तरस आ रहा है। दिनभर इस बात की चर्चा करने का क्या तुक बनता है कि ऑस्ट्रेलियाई मीडिया ने कोहली का मज़ाक क्यों बनाया? 10-20 साल पहले के उदाहरण देकर ये बात establish करने का क्या सेंस है कि ऑस्ट्रेलिया के खिलाड़ी भी तो ऐसा करते थे? अरे भाई, ऑस्ट्रेलिया के खिलाड़ी ऐसा करते थे, तो क्या इस बात के लिए दुनिया उनकी इज्ज़त करती थी? नहीं, बिल्कुल नहीं। ऑस्ट्रेलियन प्लेयर्स की इसी रवैए की वजह से उनके खिलाड़ी पूरी दुनिया में बदनाम भी थे। रही बात ऑस्ट्रेलियन मीडिया की कोहली को लेकर हार्श होने की, तो भाई, ऑस्ट्रेलियन मीडिया क्या अपने खिलाड़ियों को लेकर हार्श नहीं होता? जिस तरह पर्थ में पहला टेस्ट हारने पर ऑस्ट्रेलिया के टीवी और प्रिंट मीडिया ने अपनी टीम की खिंचाई की, आप वैसी आलोचना की भारत में कल्पना भी नहीं कर सकते। चर्चा तो इस बात पर होनी चाहिए थी कि 36 साल के विराट कोहली को क्या ज़रूरत पड़ी थी कि वो 19 साल के यंग प्लेयर के साथ इस तरह फिज़िकल हो जाएं। वो भी उस खिलाड़ी के स...

आखिर Indian Students MBBS करने यूक्रेन ही क्यों जाते हैं? Why Ukraine is the prominent choice of Indian Medical Students| #Russiakraineconflict

पिछले 5 दिनों से चली आ रही रूस यूक्रेन युद्ध की बड़ी घटनाओं में भारत के लिए सबसे बुरी खबर यह है कि यूक्रेन की सरकार अब भारतीय छात्रों को यूक्रेन से निकलने के लिए प्रताड़ित कर रही है। यूक्रेन के लिए यह बहुत शर्म की बात है कि जस देश से सबसे ज्यादा विद्यार्थी उनके यहां पढ़ने आते हैं उन्हीं विद्यार्थियों को प्रताड़ित किया जा रहा है लेकिन सवाल यह उठता है कि आखिर भारतीय छात्र यूक्रेन में ही अपनी मेडिकल की पढ़ाई क्यों करना चाहते हैं? Why Indian Medical Students go Ukraine यूक्रेन की सरकार के दस्तावेजों की माने तो यूक्रेन में तकरीबन 23% विद्यार्थी भारत के हैं। जो एक छोटे देश के लिए बहुत बड़ा आंकड़ा है। और इन 23% विद्यार्थियों में सबसे ज्यादा विद्यार्थी मेडिकल के क्षेत्र के हैं। आखिर ऐसा क्यों क्यों भारतीय मेडिकल के छात्र यूक्रेन को अपनी पहली पसंद बनाते हैं भारत को नहीं आज के इस ब्लॉग में हम आपको इन्हीं कारणों के बारे में बताएंगे Low Fee:-      यूक्रेन में 6 साल के मेडिकल कोर्स की पढ़ाई का तकरीबन खर्चा लगभग 17 लाख रुपए आता है। वहीं भारत में यही खर्चा 70 लाख से 1 करोड़ भी आ जाता ह...