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Book Review: Chitralekha by Bhagwati Charan Verma

 चित्रलेखा – एक दार्शनिक कृति की समीक्षा लेखक: भगवती चरण वर्मा   प्रस्तावना   हिंदी साहित्य के इतिहास में *चित्रलेखा* एक ऐसी अनूठी रचना है जिसने पाठकों को न केवल प्रेम और सौंदर्य के मोह में बाँधा, बल्कि पाप और पुण्य की जटिल अवधारणाओं पर गहन चिंतन के लिए भी प्रेरित किया। भगवती चरण वर्मा का यह उपन्यास 1934 में प्रकाशित हुआ था और यह आज भी हिंदी गद्य की कालजयी कृतियों में गिना जाता है। इसमें दार्शनिक विमर्श, मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और सामाजिक यथार्थ का ऐसा संलयन है जो हर युग में प्रासंगिक बना रहता है । मूल विषय और उद्देश्य   *चित्रलेखा* का केंद्रीय प्रश्न है — "पाप क्या है?"। यह उपन्यास इस अनुत्तरित प्रश्न को जीवन, प्रेम और मानव प्रवृत्तियों के परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करता है। कथा की बुनियाद एक बौद्धिक प्रयोग पर टिकी है जिसमें महात्मा रत्नांबर दो शिष्यों — श्वेतांक और विशालदेव — को संसार में यह देखने भेजते हैं कि मनुष्य अपने व्यवहार में पाप और पुण्य का भेद कैसे करता है। इस प्रयोग का परिणाम यह दर्शाता है कि मनुष्य की दृष्टि ही उसके कर्मों को पाप या पुण्य बनाती है। लेखक...

History of Chambal

 चम्बल का इतिहास क्या हैं?

ये वो नदी है जो मध्य प्रदेश की मशहूर विंध्याचल पर्वतमाला से निकलकर युमना में मिलने तक अपने 1024 किलोमीटर लम्बे सफर में तीन राज्यों को जीवन देती है।


महाभारत से रामायण तक हर महाकाव्य में दर्ज होने वाली चम्बल राजस्थान की सबसे लम्बी नदी है। श्रापित और दुनिया के सबसे खतरनाक बीहड़ के डाकुओं का घर माने जाने वाली चम्बल नदी मगरमच्छों और घड़ियालों का गढ़ भी मानी जाती है। तो आईये आज आपको लेकर चलते हैं चंबल नदी की सेर पर


भारत की सबसे साफ़ और स्वच्छ नदियों में से एक चम्बल मध्य प्रदेश के इंदौर जिले में महू छावनी के निकट स्थित विंध्य पर्वत श्रृंखला की जनापाव पहाड़ियों के भदकला जलप्रपात से निकलती है और इसे ही चम्बल नदी का उद्गम स्थान माना जाता है। चम्बल मध्य प्रदेश में अपने उद्गम स्थान से उत्तर तथा उत्तर-मध्य भाग में बहते हुए धार, उज्जैन, रतलाम, मन्दसौर, भिंड, मुरैना आदि जिलों से होकर राजस्थान में प्रवेश करती है। राजस्थान में चम्बल चित्तौड़गढ़ के चौरासीगढ से बहती हुई कोटा, बूंदी, सवाईमाधोपुर, करोली और धौलपुर जिलों से निकलती है। जिसके बाद ये राजस्थान के धौलपुर से दक्षिण की ओर मुड़ कर उत्तरप्रदेश में भरेह के पास पचनाडा मेंकी यमुना में मिल जाती है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि पचनाडा वह स्थान है जहां पांच नदियां मिलती हैं, इन पांच नदियों में क्वारी, चंबल, सिंध, यमुना और पहुज शामिल हैं।यमुना में शामिल होने के पहले चम्बल नदी उत्तर पूर्व में बहते हुए कई भौतिक विशेषताओं और सभी प्रकार के इलाकों को पार करते हुए राजस्थान और मध्य प्रदेश के बीच सैकड़ों किलोमीटर लम्बी सीमा रेखा भी बनाती है।


विंध्य पर्वतमाला से निकलने वाली भारत की एकलौती प्रदूषण से मुक्त नदी चम्बल अपने उद्गम स्थान से विलय तक कुल 1024 किलोमीटर लम्बी है। इसकी इस विशाल लम्बाई का लगभग 376 किलोमीटर मध्यप्रदेश और करीब 249 किलोमीटर राजस्थान में पड़ता है। इसके साथ ही यह विशाल नदी मध्यप्रदेश से राजस्थान में प्रवेश से पहले दोनों राज्यों के बीच लगभग 216 किलोमीटर लम्बी सीमा रेखा भी बनाती है। जिसके बाद चम्बल करीब 150 किलोमीटर की दूरी तय करते हुए उत्तरप्रदेश पहुंचती है, जहां ये जालौन जिले में 123 मीटर की ऊँचाई पर यमुना नदी में मिलने से पहले यह लगभग 33 किलोमीटर तक ओर फैलती है। यहां यह क्वारी, सिंध और पहुज के साथ यमुना में विलय हो जाती है, इन नदियों के इस संगम को वृहद गंगा जल निकासी प्रणाली में इसके एकीकरण का प्रतीक भी माना जाता है।


चम्बल नदी की सहायक नदियों में मुख्य रूप से आहू नदी, मांगली नदी, गुंजाली नदी, कुराल नदी, चाकण नदी, घोड़ा पछाड़ नदी, मेज नदी, क्षिप्रा नदी, बनास नदी, ब्राह्मणी नदी या बामणी नदी, कूनो नदी या कुनू नदी, सीप नदी, पार्वती नदी, परवन नदी, नेवाज या निवाज नदी और काली सिंध नदी शामिल है। चम्बल की सहायक नदियों के इसमें विलय की बात करें तो, इसकी सहायक नदियों के चम्बल में विलय की शुरुवात मध्य प्रदेश में क्षिप्रा नदी के इसमें विलय होने से होती है। राजस्थान में इसका पहले संगम झालावाड़ में आहू नदी के कालीसिंध नदी में मिलने से शुरू होता है, इन दोनों के संगम के बाद कालीसिंध बहते हुए कोटा पहुंचती है जहां इसका चम्बल नदी में संगम होता है। कालीसिंध और आहू नदियों के इस संगम को सामेला कहा जाता है। इसके साथ झालावाड़ में ही चम्बल की सहायक परवन नदी में नेवाज या निवाज नदी का संगम भी होता है, जो आगे बहते हुए कोटा में चम्बल की सहायक कालीसिंध नदी में मिल जाती है। इसके बाद सवाई माधोपुर में पार्वती, सीप और बनास नदी सवाई माधोपुर के पदरा गाँव के रामेश्वरम घाट पर चम्बल नदी में मिलती है, इनके इस संगम को त्रिवेणी संगम के नाम से भी जाना जाता है। त्रिवेणी संगम में चम्बल में मिलने वाली बनास नदी को इसकी सबसे लम्बी सहायक नदी है। इसके साथ ही करौली में चम्बल नदी का कुनू नदी या कूनो नदी से भी संगम होता है। जिसके बाद चित्तौड़गढ़ में ब्राह्मणी नदी और बूंदी में मेज नदी का चम्बल में संगम होता है। मेज और चम्बल के संगम पर बूंदी जिले में मेज बांध भी बनाया गया है।


चंबल एक वर्षा आधारित नदी है, जिसके चलते गर्मियों के महीनों के दौरान इसका जल स्तर काफी नीचे चला जाता है। लेकिन फिर भी इसमें अनुमानित रूप से लगभग 143,219 वर्ग किमी से अधिक का जल निकासी बेसिन है। इस बेसिन के चलते चम्बल नदी जलविद्युत शक्ति और सिंचाई के लिए भारत की सबसे उपयुक्त नदियों में से एक है, चम्बल की इसी खासियत के चलते इसे राजस्थान की कामधेनु भी कहा जाता है। इसकी जलविद्युत शक्ति दोहन की बात करें तो इस पर कई बांध और बैराज बनाये गए हैं, जिसमे चंबल घाटी परियोजना के हिस्से के रूप में तीन बांध और एक बैराज शामिल हैं। चम्बल पर राजस्थान और मध्य प्रदेश की सीमा पर गांधी सागर बांध, चित्तौड़गढ़ जिले में राणा प्रताप सागर बांध और कोटा के पास जवाहर सागर बांध को बिजली की जरूरतों को पूरा करने के लिए, जबकि कोटा बैराज को इन तीन बांधों से पानी को डायवर्ट करने और सिंचाई के लिए बनाया गया है। गांधी सागर बांध चम्बल नदी पर मध्य प्रदेश में स्थित है, जो चम्बल नदी पर बना सबसे बड़ा बांध है, जबकि इस नदी पर राजस्थान का सबसे बड़ा बांध राणा प्रताप सागर बांध है।


चम्बल की अर्थव्यवस्था और उद्योग


विधुत उत्पादन के साथ चम्बल के पानी से मध्य प्रदेश और राजस्थान की लगभग 7 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होती है। इसके चलते इसे राजस्थान के हाड़ोती की कामधेनु का नाम भी दिया गया है। चम्बल से होने वाली सिंचाई के चलते मध्य प्रदेश में मुख्य रूप से सरसों, बाजरा, तिल, अरहर, सोरघम, ज्वार,रागी, उड़द, मूंग और कई फल व सब्जियों की खेती होती है तो वहीँ इस नदी के पानी के राजस्थान के बीहड़ को उपजाव बनाने के चलते राजस्थान में मुख्य रूप से गेहू, सोयाबीन, चावल, तरबूज, मूंग, उड़द, मक्का, तिल, बाजरा, मूंगफली, गन्ना और गवार की बड़े स्तर पर खेती की जाती है। खेती अलावा चम्बल से पर्याप्त मात्रा में औद्योगिक जरूरतों के लिए पानी मिलने के चलते चंबल के किनारों पर बसे शहरों में कई उद्योग और रोजगार के साधन भी उपलब्ध हुए हैं। मध्य प्रदेश में चम्बल के किनारे बसे उज्जैन और नागदा में भी चम्बल के चलते कई बड़ी औद्योगिक इकाईयां स्थापित की गई है। भारत के जाने माने बिरला ग्रुप ने भी अपने बिज़नेस की शुरुवात उज्जैन ज़िले में स्थित नागदा में सीमेंट फैक्ट्री डालने से की थी। इसके साथ ही यहां कई बड़े और छोटे औद्योगिक उद्यम हैं, जिनमें मुख्य रूप से भारत की सबसे महत्वपूर्ण विस्कोस फ़ाइबर प्लांट कम्पनी ग्रासिम इंडस्ट्रीज़, बायोमास ईंधन पर आधारित संयंत्र लैंक्सेस के साथ कई कागज़, कपड़ा, फार्मास्यूटिकल्स, सीमेंट, इंजीनियरिंग, चीनी और फूड प्रोसेसिंग उद्योग शामिल है। चम्बल के किनारे बसे कोटा शहर में एशिया के सबसे बड़े उर्वरक संयंत्र में से एक चंबल फ़र्टिलाइज़र्स एंड केमिकल्स लिमिटेड और श्रीराम फ़र्टिलाइज़र्स, विश्वभर में सीमेंट की जानी मानी कम्पनी मंगलम सीमेंट, भारत की सबसे बड़ी ग्लास कंपनियों में से एक सेमकोर ग्लास इंडस्ट्रीज, एशिया की सबसे बड़ी इंजीनियरिंग कंपनियों में से एक इंस्ट्रूमेन्सन लिमिटेड, रेलवे वेगन बनाने फ़ैक्ट्री सिमको बिरला के साथ कई थर्मल पावर प्लांट, पारंपरिक स्वदेशी उद्योग, सीमेंट, तिलहन मिलिंग, डेयरी, आसवन, धातु हस्तशिल्प, साड़ी, खनन और कोचिंग उद्योग शामिल है। इसके साथ ही कोटा जिले में ही विश्व की सबसे बड़ी धनिया मंडी भी मौजूद है।


चम्बल की वनस्पति और वातावरण


मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश राज्यों में बहने वाली चम्बल के विशाल वाटर बेसिन के चलते इसके किनारों पर एक चुनौतीपूर्ण वातावरण में अर्ध-शुष्क विस्तार से वनस्पति पनपती है। खड्डों की संरचनाओं और कांटेदार जंगलों के चलते इसके आसपास के जंगल और वनस्पतियों को उत्तरी उष्णकटिबंधीय वनों के तहत वर्गीकृत किया गया है। यह वर्गीकरण आम तौर पर 600 से 700 मिलीमीटर वर्षा वाले क्षेत्रों का संकेत देता है, जो कम शुष्क पारिस्थितिकी तंत्र का प्रतिनिधित्व करता है। चम्बल का इलाका कंटीली झाड़ियों और छोटे पेड़ों से घिरा हुआ है जो समय के साथ यहां की परिस्थितियों के अनुकूल परिवर्तित हो गए हैं। चम्बल के किनारों पर 1000 से ज्यादा फूलदार पौधों की प्रजातियां, एनोजिसस लैटिफोलिया, ए. पेंडुला, टेक्टोना ग्रैंडिस, लैनिया कोरोमंडलिका, डायोस्पायरोस मेलानोक्सिलोन, स्टर्कुलिया यूरेन्स, मिट्रैग्ना पार्विफ्लोरा, ब्यूटिया मोनोस्पर्मा, एम्ब्लिका ऑफिसिनेलिस, बोसवेलिया सेराटा, ब्रिडेलिया स्क्वैमोसा और हार्डविकिया बिनाटा पायी जाती हैं। यहां की वनस्पतियों में मुख्य रूप से कैपेरिस डिकिडुआ, कैपेरिस सेपियारिया, बालानाइट्स एजिपियाका, बबूल सेनेगल, ए. निलोटिका, ए. ल्यूकोफ्लोआ, प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा, ब्यूटिया मोनोस्पर्मा, मेटेनस इमर्जिनाटा, टैमरिक्स प्रजातियां, साल्वाडोरा पर्सिका, एस. ओलेओइड्स, क्रोटेलारिया मेडिकागिना, सी. बुरहिया, क्लेरोडेंड्रम फ़्लोमिडिस शामिल हैं।


चम्बल के बीहड़ और डाकू


चम्बल नदी अपनी इन खासियतों के अलावा अपने बीहड़ के लिए भी काफी विख्यात या ये कहें की देशभर में कुख्यात रही है। सात जिलों के 2.19 लाख हैक्टेयर में फैला चंबल का बीहड़ एक समय में अपने कुख्यात डकैतों के लिए काफी चर्चा में रहा है। 70 के दशक में इन्हीं चंबल के बीहड़ों में प्रसिद्ध डाकू मलखान सिंह, पान सिंह तोमर, मुन्नी बाई, फूलन देवी, माखन सिंह, सुल्तान सिंह, रमेश सिंह सिकरवार, जैसे खूंखार डाकुओं की दहशत रही हैं। एक ज़माने में चम्बल के बीहड़ों का नाम सुनते ही लोग कांप जाते थे क्योंकि इन बीहड़ों में डकैत डेरा डाले रहते थे। यहां रहने वाले डकैत अपहरण, लूट, डकैती, हत्या जैसी वारदातों को अंजाम देते थे। डकैतों के इन्ही किस्सों के चलते यहां कई फ़िल्में बनी हैं, जिसमे मुख्य रूप से पुतलीबाई, सुल्ताना, बैंडिट क्वीन, पानसिंह तोमर आदि फिल्में शामिल हैं जो यहां के डकैतों की जीवनी पर आधारित हैं। बीहड़ वो क्षेत्र होता है जो पानी के तेज बहाव और बरसात के चलते बार-बार अपनी आकृति बदलते रहता है और चंबल नदी की निकटता के कारण इसे चंबल के बीहड़ कहा जाता है। ये राजस्थान में धौलपुर, करौली, सवाई माधोपुर, उत्तर प्रदेश में इटावा, मध्यप्रदेश में मुरैना, भिण्ड, श्योपुर आदि जिलों तक बीहड़ फैला हुआ है। हालंकि चम्बल सिर्फ अपने डकैत ही कुख्यात नहीं हैं बल्कि इसका पानी देश की अन्य नदियों के मुकाबले ज्यादा स्वच्छ और जलीय जीवों के अनुकूल होने के चलते, चम्बल में कई दुर्लभ और लुप्त होने की कगार पर खड़े जलीय जीवों और पक्षियों को संरक्षण मिल पाता है। चंबल नदी पर दुनिया के कुछ सबसे खास और विशेष अभयारण्य भी बसाये गए हैं, तो आईये जाने इनके बारे में विस्तार से


चम्बल घड़ियाल अभयारण्य


राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य को राष्ट्रीय चंबल घड़ियाल वन्यजीव अभयारण्य के नाम से भी जाना जाता है, जो पर्यटकों के बीच चंबल बोट सफारी के नाम से भी प्रसिद्ध है। यह मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के संयुक्त प्रयासों से शुरू हुई एक प्रमुख घड़ियाल संरक्षण परियोजना है। इसकी शुरुवात साल 1978 में मध्यप्रदेश ने की थी, जिसे बाद में राजस्थान और उत्तर प्रदेश ने भी वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 के तहत संरक्षित किया। 5400 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ यह अभ्यारण्य स्थलाकृति खड्डों, पहाड़ियों और रेतीले समुद्र तटों से भरा कथिअर-गिर शुष्क पर्णपाती वन पारिस्थितिकी क्षेत्र का हिस्सा है। चंबल घड़ियाल वन्यजीव अभयारण्य का मुख्य उद्देश्य लुप्तप्राय घड़ियाल, लाल मुकुट वाले कछुए और गंगा डॉल्फिन को संरक्षित करना है। इसके अलावा यहां मगरमच्छ, चिकने बालों वाले ऊदबिलाव, धारीदार लकड़बग्घा और भारतीय भेड़ियों को भी संरक्षित किया गया है। इस अभयारण्य में कछुवों की 26 दुर्लभ प्रजातियों में से 8 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। साथ ही यह अभयारण्य गंगा डॉल्फ़िन के अंतिम मौजूदा घरों में से एक है और यहां एक हज़ार से ज़्यादा घड़ियाल और 300 से ज़्यादा दलदली मगरमच्छ भी रहते हैं। इन सब के अलावा यहां सांभर हिरण, नील गाय, भारतीय हिरन, रीसस बंदर, हनुमान लंगूर, भारतीय ग्रे और छोटे एशियाई नेवले, बंगाल लोमड़ी, पाम सिवेट, जंगली बिल्ली, जंगली सूअर, उत्तरी पाम गिलहरी, भारतीय कलगीदार साही, भारतीय खरगोश, भारतीय उड़ने वाली लोमड़ी और भारतीय लंबे कान वाले हाथी जैसे स्तनधारी जानवर भी पाए जाते हैं। राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य प्रवासी और स्थानीय पक्षियों सहित लगभग 320 प्रजातियों का निवास स्थान हैं, जिसमें सारस क्रेन, पल्लास फिश ईगल, इंडियन कोर्सर पल्लीड हैरियर, लेसर फ्लेमिंगो, ब्लैक-बेलिड टर्न, रेड-क्रेस्टेड पोचार्ड, फेरुगिनस पोचार्ड, बार हेडेड गूज, ग्रेट थिक नी, ग्रेटर फ्लेमिंगो, डार्टर और ब्राउन हॉक उल्लू आदि शामिल हैं।


भैंसरोड़गढ़ अभयारण्य


229 वर्ग किलोमीटर में फैला ये अभयारण्य राजस्थान के चित्तौडग़ढ़ जिले में स्थित है, जिसे राजस्थान सरकार ने 5 फरवरी 1983 को वन्यजीव अभयारण्य घोषित किया था। इस जगह का मुख्य आकर्षण साल 1741 में रावत लाल सिंह द्वारा निर्मित रावतभाटा के पास स्थित विशाल भैंसरोड़गढ़ दुर्ग है, और इसी दुर्ग के नाम पर इस अभयारण्य का नामकरण भी किया गया है। ब्राह्मिनी एवं चम्बल नदियों के संगम पर बना ये जल दुर्ग राजस्थान के रियासतकाल में महाराणा प्रताप के भाई शक्ति सिंह की सैन्य चौकी हुआ करता था। यह अभयारण्य बाघ, तेंदुए, सुस्त भालू, लकड़बग्घा और हिरणों की कई प्रजातियों सहित वन्यजीवों की एक विविध श्रेणी का घर है। इसके साथ ही यहां की वन्सपति की बात करें तो धोक यहाँ का मुख्य वृक्ष है, जबकि यहाँ सालार, कदम्ब, गुर्जन, पलाश, तेन्दु, सिरस, आमला, खैर, बेर सेमल आदि पेड़ों के साथ नम जगहों पर अमलतास, इमली, आम, जामुन, चुरेल, अर्जुन, बहेड़ा, कलम और बरगद प्रजाति के पेड़ भी मिलते हैं।


मुकुंदरा हिल्स अभयारण्य


बूंदी, कोटा, झालावाड़ और चित्तौड़गढ़ में फैले मुकुंदरा टाइगर रिजर्व को दर्रा वन्यजीव अभयारण्य और मुकुंदरा टाइगर रिजर्व के नाम से भी जाना जाता है। इस की स्थापना साल 2004 में दर्रा वन्यजीव अभयारण्य, राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य और जवाहर सागर वन्यजीव अभयारण्य को मिलाकर की गई थी। कोटा से सिर्फ 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह अभयारण्य रणथंभौर और सरिस्का टाइगर रिजर्व के बाद राजस्थान का तीसरा सबसे बड़ा टाइगर रिजर्व है। यह टाइगर रिजर्व चारों ओर से घने जंगलों से घिरा हुआ है, जिसमें कई औषधीय वनस्पति पाई जाती है। यह रिजर्व में बाघ, तेंदुए, जंगली सूअर, लकड़बग्घा, सुस्त भालू, हिरण, भेड़िये, चिंकारा और मृग के अलावा कई पक्षी प्रजातियों का भी घर है।


चम्बल नदी के किनारों पर अभ्यारणों, वनस्पति और जीव-जंतुओं के साथ चम्बल का मध्य प्रदेश और राजस्थान में पर्यटन की दृस्टि से भी काफी महत्वपूर्ण स्थान है, चम्बल के किनारों पर कई पर्यटक और दर्शनीय स्थल है, तो आईये आपको लेकर चलें इनमे से कुछ के सफर पर आईये आपको लेकर चलें इनके विर्तुअल टूर पर


भैंसरोडगढ़ दुर्ग


भैंसरोड़गढ़ किला या भैंसरोड़ किला एक प्राचीन किला है जो भारत के राजस्थान राज्य में एक प्रमुख पर्यटन स्थल के रूप में जाना जाता है। भैंसरोड़गढ़ 1741 से मेवाड़ राज्य की एक किलेबंद जागीर थी, जिसमें उस समय शक्तिशाली चित्तौड़गढ़ किला और 235 किलोमीटर दूर स्थित उदयपुर का शाही शहर भी शामिल था। किंवदंती है कि खिलजी वंश के बादशाह अलाउद्दीन खिलजी ने इस किले को बर्बाद कर दिया था, हालाँकि अब इस किले और इसमें स्थित भव्य महल को एक हैरिटेज होटल में बदल दिया गया है। आप यहाँ आएँ तो इस किले के निकट ही स्थित भैंसरोडगढ़ वन्यजीव अभयारण्य में भी अवश्य जाएँ। वहाँ आपको बहुत से वन्यजीव व पक्षी दिख सकते हैं, जिनमें हिरण, गीदड़, चिंकारा, लोमड़ी, लकड़बग्घा, मृग, जंगली सूअर, कछुए, मगरमच्छ, हंस, काली तहेरी, लाल चोंच वाली बत्तख, राजबक, बाज, उल्लू और जलकाक शामिल हैं। इस अभयारण्य की अवस्थिति ठीक चंबल और ब्राह्मणी नदियों के संगम पर है, इसलिए आप यहाँ मीठे पानी की डॉल्फिन को चारों ओर तैरते हुए देखने का आनंद भी ले सकते हैं।


चंबल रिवर फ्रंट


कोटा शहर मे कोटा बैराज से नयापुरा पुलिया तक पौने तीन किमी की लंबाई मे चंबल नदी के दोनों तटो पर खूबसूरत चंबल चंबल रिवर फ्रंट विकसित किया गया है I चंबल रिवर फ्रंट भारत में विकसित पहला हेरिटेज रिवर फ्रंट है। इस रिवर फ्रंट के दोनों किनारों पर 26 घाटों का अलग-अलग थीम पर निर्माण करवाया गया है। चंबल रिवर फ्रंट पर बने वर्ल्ड हेरिटेज घाट पर विश्व के अलग-अलग देशों की 9 प्रसिद्ध इमारतें और वास्तुकलाओं को बनाया गया है। जिस तरह किशोर सागर तालाब के किनारे सेवन वंडर्स पार्क बनाया गया है, जहाँ पर देश-दुनिया के सात अजूबे बनाए गए हैं, उसी तर्ज पर रिवर फ्रंट के वर्ल्ड हेरिटेज घाट पर विश्व की नौ प्रसिद्ध इमारतों की कलाकृति का निर्माण किया गया है। करीब 240 मीटर क्षेत्र में एक के बाद एक कतार से यह वास्तुकलाएँ बनाई गई है, जिसमें भारत की शान लाल किला, गोपुरम् टैंपल, चाइनीज पगोड़ा, हिस्ट्री पार्क, वेस्ट मिंस्टर, टेवी फाउंटेन, वारम टैंपल, मास्क्यू और लॉवरे म्यूज़ियम देख सकते है । बार्सिलोना फाउंटेन की तर्ज पर यहां भी फाउंटेन बनाया गया है। यहाँ आने वाले पर्यटक रंग बिरंगी रोशनी और म्यूजिक के साथ फाउंटेन शो एंजॉय कर सकते है l इसके अलावा यहाँ पर देश का पहला एलईडी गार्डन भी बनाया गया है। यहाँ आने वाले लोगों को वास्तविक पेड़-पौधे पक्षियों की जगह एलईडी एलिमेंट दिखाई देंगे। रिवर फ्रंट के पूर्वी जोन में जोडियक घाट भी विकसित किये गए हैं जिसमें अलग-अलग राशि चक्र हैं।


चंबल गार्डन


चंबल नदी के तट पर निर्मित यह सुंदर तथा प्राकृतिक सुरम्य वातावरण का पार्क है। यह स्थानीय नगर निगम द्वारा संचालित है तथा बड़े ही आकर्षक ढंग से यह निर्मित है। यहंा पर आधुनिक शैली में बच्चों के लिए बनाए गए झूले, लक्ष्मण झूला, तथा प्रमुख रूप से चम्बल नदी मंे पावर मोटर बोट की सैर, पर्यटकांे को खूब लुभाती है। पार्क के अंदर तथा बाहर खान पान की स्वादिष्ट स्टॉल्स उपलब्ध हैं।


आलनिया बांध


कोटा से झालावाड़ मार्ग पर लगभग 20 कि.मी. की दूरी पर आलनियां नदी के किनारे बनीं चट्टानों पर प्रागैतिहासिक काल की गुफाएं तथा रॉक पेंटिंग्स बनी हुई हैं। रॉक पेंटिंग्स पर शोध करने वाले तथा इस क्षेत्र मंे रूचि रखने वाले पर्यटक इस स्थल को देखने अवश्य आते हैं।


अटेर का किला


घने बीहड़ और चंबल नदी किनारे 16वीं सदी का अटेर दुर्ग अपने शौर्य और स्थापत्य कला की कहानी बयां करता है। 1664 से 1668 में भदावर राजवंश के राजा बदन सिंह और महा सिंह ने अटेर किले का निर्माण करवाया। यह किला हिन्दू और मुग?ल स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है। कहते हैं महाभारत में जिस देवगिरि पहाड़ी का उल्लेख है, यह किला उसी पहाड़ी पर है। अटेर किले का मूल नाम देवगिरि दुर्ग है। किले के निर्माण के दौरान राजा ने यहां बहने वाली चंबल नदी की धारा को घुमवा दी थी। इससे यहां चंबल नदी अंग्रेजी के 'यू' सेप में बहती है।


अकेलगढ़ का किला


राजस्थान के कोटा शहर में चंबल नदी के किनारे स्थित अकेलगढ़ के किले को कोटा गढ़ या गढ़ महल के नाम से भी जाना जाता है।


चूलिया झरना


राजस्थान के राणा प्रताप बाँध के करीब चंबल नदी के रास्ते में मौजूद चूलिया झरना राजस्थान के मुख्य झरनो में से एक है। चुलिया के जल का प्रवाह भैंसरोड़गढ़ के समीप चंबल नदी के 5 किमी ऊर्ध्वप्रवाह दिशा में है। राणा प्रताप सागर बांध के डाउन स्ट्रीम में लगभग 1.6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह झरना ज़मीन से काफी नीचे है और बड़ी-बड़ी चट्टानों से घिरा हुआ है। झरने से गिरते पानी की आवाज़, चेहचहाते हुए पक्षी और आसपास की प्राक्रतिक सुंदरता आपको एक अद्भुत अकल्पनिय अनुभव देंगे।


चम्बल का सामाजिक जीवन और जनजातियां


चम्बल नदी के किनारें व्यवसायिक केंद्रों, अभ्यारणों, मंदिरों, पर्यटक स्थलों और विकसित शहरों के साथ कई आदिवासी जंतियों व जनजातियों को भी अपने अंदर समेटे हुए हैं, जिनमें सबसे मुख्य भगोरिया, भीलाला, बारेला, पटेलिया, सहरिया, गोंड, भील और बंजारा है। चंबल नदी के किनारों पर कई तरह की संस्कृति, प्रथा, सभ्यता, परम्परा और रीती-रिवाज फैले हुए हैं, जिसमें भगोरिया उत्सव को सबसे मुख्य माना जाता है। जैसा की नाम से ही समझ आता है, भगोरिया यानि भाग कर अपने लिए अपनी पसंद से जीवन साथ चुन लेना होता है। इस उत्सव में हज़ारों की संख्या में युवा-युवतियां सज-धजकर पारंपरिक वस्त्रों में प्यार, शादी, व्यापार, सामाजिक सद्भाव के अलग-अलग रूप देखने को शामिल होते हैं। भगोरिया हाट-बाजारों में युवक-युवती बेहद सज-धजकर अपने भावी जीवनसाथी को ढूंढ़ने आते हैं। इनमें आपसी रजामंदी जाहिर करने का तरीका भी बेहद निराला होता है। सबसे पहले लड़का लड़की को पान खाने के लिए देता है। यदि लड़की पान खा ले तो इसे समझा जाता है कि लड़की ने हां कर दी है। फिर लड़का लड़की को लेकर भगोरिया हाट से ही भाग जाता है और दोनों शादी कर लेते हैं। इसी तरह अगर युवक, युवती के गालों पर गुलाबी रंग लगा दे और जवाब में लड़की भी उसके गाल पर गुलाबी रंग लगा दे, तो भी यह रिश्ता तय माना जाता है।


अभ्यारणों के अलावा चंबल नदी के किनारे मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में कई मंदिरों का निर्माण हुआ है, तो आईये आपको लेकर चलें इनमे से कुछ की सेर पर


केशव राय मंदिर


राजस्थान के बूंदी ज़िले के केशवरायपाटन में चंबल नदी के किनारे बने इस मंदिर में भगवान विष्णु राजा रन्ति देव की भक्ति से प्रसन्न हो कर दो मूर्तियों के रूप में प्रकट हुए थे। ये मूर्तियां सवयंभु है, जिसमे से एक सफेद पत्थर की मूर्ति में श्री केशवजी और दूसरी काले पत्थर की मूर्ति में श्री चारभुजा नाथ की है। मान्यता के अनुसार चंबल नदी भगवान केशव राय के चरणों को छूने के बाद यू-टर्न कर लेती है। इसके साथ ही मंदिर में भगवान शिव की एक और मूर्ति जम्बू मार्गेश्वर भी स्थापित है जो उसी परिसर के दूसरे मंदिर में स्थित है। ऐसा माना जाता है कि इसकी स्थापना ऋषि परशुराम ने की थी जिन्होंने चंबल नदी के तट पर तपस्या की थी। इसके साथ एक किवदंती ये भी है की एक युद्ध में लड़ने के बाद भगवान परसुराम ने इसी जगह पर अपना खड़क धोया था, जिसके चलते भी चम्बल को श्रापित माना जाने लगा था।


भारेश्वर महादेव मंदिर


उत्तर प्रदेश के इटावा ज़िले में चंबल-यमुना नदी के संगम पर बना यह प्राचीन मंदिर महाभारतकाल का बताया जाता है। इसे लेकर मान्यता है कि अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने कुछ समय गुजारा था, और इसी दौरान भीम ने भगवान शिव की अराधना करने के लिए चंबल नदी की रेत से शिवलिंग बनाकर स्थापित किया था। ये मंदिर 444 फीट की ऊंचाई पर बना हुआ है, जहां तक जाने के लिए भक्तों को 108 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं।


बटेश्वर मंदिर


धौलपुर से 40 किलोमीटर और मुरैना से 25 किलोमीटर दूर बने इस मंदिर परिसर में करीब 200 प्राचीन मंदिर हैं. बलुआ पत्थर से बने ये मंदिर 8वीं से 10वीं शताब्दी के बीच के हैं, जिनका निर्माण गुर्जर-प्रतिहार शैली में करवाया गया है।


ब्रिक टेंपल


अटेर क्षेत्र के खेराहट गांव के बीहड़ में मौजूद ब्रिक टेंपल के बारे में मान्यता है कि भगवान राम ने त्रेता युग में अपने वनवास के दौरान यहां बहुत समय बिताया था। ब्रिक टेंपल के गर्भ गृह में कोई प्रतिमा स्थापित तो नहीं है लेकिन इसे मां महिषासुर मर्दनी को समर्पित माना जाता है।


गोदावरी धाम


चम्बल गार्डन से रावतभाटा की ओर प्रमुख मार्ग पर यह मंदिर चम्बल नदी के तट पर निर्मित है। कोटा में चंबल के पूर्वी किनारे पर स्थित इस शानदार मंदिर का निर्माण सन 1043 वर्ष के करीब किया गया था। यहां मुख्य रूप से भगवान हनुमान जी की पूजा अर्चना की जाती है, जो काली शिला पर वीर आसन में स्थापित है। हनुमान जी के अलावा यहां सिद्ध विनायक गणेश जी, बटुक भैरव और तुलसी दास जी के मशहूर मंदिर भी हैं।


गरडिया महादेव


कोटा शहर से 25 किलोमीटर कि दूरी पर कोटा-उदयपुर हाईवे के मध्य स्थित गरडिया महादेव मंदिर भगवान शिव का समर्पित एक लोकप्रिय शिव मंदिर हैं। चंबल नदी के तट पर स्थित होने के कारण गरडिया महादेव को पिकनिक स्थल के रूप में भी जाना जाता है।


गेपरनाथ मंदिर


कोटा से रावतभाटा मार्ग पर 22 किमी की दूरी पर गेपरनाथ मंदिर चम्बल नदी के समीप चम्बल घाटी की दुर्गम पहाड़ियों में बसा हुआ है। इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि यह भगवान शिव को समर्पित यह एक ऐसा मंदिर है, जहां पर स्वयं प्रकृति ही भगवान शिव का अभिषेक करती है. इस मंदिर की स्थापना भीलों के गुरु शैव मतावलंबी ने करवाई थी. चम्बल नदी की कराइयों में विराजमान शिव के दर्शन करने के लिए करीब 350 सीढ़िया उतरकर नीचे गर्भगृह में जाना होता है.


शिपावरा संगम


मध्य प्रदेश के रतलाम, मंदसौर, और राजस्थान के झालावाड़ ज़िलों की सीमा पर स्थित शिपावरा महादेव मंदिर जिसे शिपावरा संगम के नाम से भी जाना जाता है, शिप्रा और चंबल नदियों के संगम पर स्थित है। मान्यता है कि भगवान शिव भस्मासुर से बचने के लिए इसी जगह छिपे थे, इसलिए इसका नाम छिपावरा पड़ा, जिसे आगे चलकर शिपावरा बुलाया जाने लगा।


जोगणिया माता मंदिर


भीलवाड़ा और चित्तौड़गढ़ के मध्य सीमा पर स्थित यह ऐतिहासिक और चमत्कारी मंदिर अपनी अनोखी मान्यताओं के लिए विश्वभर में मशहूर है। मंदिर के बारे में मान्यता है कि चोर और डाकू वारदात को अंजाम देने से पहले माता का आशीर्वाद लिया करते थे। और पुलिस के हत्थे चढ़ने के बाद मौके से फरार होते हुए मां के दरबार पहुंचते था जहां उनके हाथों में लगी बेड़िया अपने आप ही खुल जाया करती थी। मंदिर के पुजारी के अनुसार इस प्राचीन प्रमुख शक्ति पीठ जोगणिया माता मंदिर परिसर में चारों और अनेकों देवीयो की प्रतिमा की स्थापना की गई हैं, जिसमे 64 जोगणिया देवियों के स्वरूप के रूप में प्रतिमा स्थापित की गई है।


उत्तर भारत की सबसे प्राचीन नदियों में से एक चम्बल की शुरुवात और अंत दोनों ही धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व वाली नदियों के साथ होता है, लेकिन इसके बाद भी चंबल को बुंदेलखंड क्षेत्र के अलावा सभी जगहों पर श्रापित माना जाता है। प्राचीनकाल में 'चर्मवती' के नाम से जाने जाने वाली चम्बल नदी को श्रापित मानने के पीछे अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग कविंदंतियाँ और धार्मिक कथाएं प्रचलित हैं, तो चलिए जाने इनके बारे में विस्तार से


महाभारत और राजा रंतिदेव ने जुडी कथा


किंवदंती और धार्मिक कथाओं के अनुसार प्राचीनकाल में रंतिदेव नाम के एक राजा ने देवताओं को खुश के लिए 'चर्मवती' के किनारे पर एक यज्ञ का आयोजन किया था, जिसे पूरा करने के लिए ऋषि-मुनियों के कहने पर हजारों जानवरों की बलि देकर उनके खून को इस जगह पर बहा दिया गया था. माना जाता ही की बाद में इन्हीं जानवरों के खून ने नदी का आकार ले लिया और चम्बल या चर्मवती का जन्म हुआ। इसी धार्मिक कथा के कारण चंबल नदी को एक अपवित्र नदी मानकर इसकी पूजा नहीं की जाती।


द्रौपदी का श्राप


महाकाव्य महाभारत के अनुसार प्राचीनकाल में चर्मवती यानी चंबल नदी के किनारे पर ही कौरवों और पांडवों के बीच चौसर का खेल या द्युत क्रीड़ा हुई थी, जिसमें पांडव अपनी पत्नी द्रौपदी को दुर्योधन के हाथों हार गए. जिसके बाद कौरवों ने भरी सभा में द्रौपदी का अपमान किया था. इस घटना से आहत होकर ही द्रौपदी ने चंबल की पूजा-अर्चना से परहेज किए जाने का श्राप दिया था। इस श्राप के बाद चम्बल को एक श्रापित नदी मानकर कभी किसी ने चंबल नदी की पूजा नहीं की।


श्रवण कुमार और चंबल


यह भी किंवदंती है कि इस नदी का पानी पीने से लोग आक्रामक हो जाते हैं। किंवदंती के अनुसार एक बार माता पिता को कांवड़ से तीर्थ यात्रा पर ले जा रहे श्रवण कुमार ने चंबल का पानी पीया तो उनमें भी आक्रामकता आ गई और माता-पिता पर गुस्सा होकर उन्हें वहीं छोड़कर चल दिए। हालांकि थोड़ी आगे जाने पर उन्हें एहसास हुआ तो उन्होंने क्षमा मांगी और साथ ले गए।


मध्य प्रदेश के जनापाव से चलती हुई चम्बल उत्तरप्रदेश में भरेह के पास पचनाडा में यमुना में मिल जाती है। इस नदी के किरदार, किस्से और कहानियां को भले ही किताबों और फिल्मों में डरावना दिखाया गया हो लेकिन वास्तव में इस नदी में सभी रंगों की कला, संस्कृति, परम्पराओं और रीती-रिवाजों का समावेश है। ये नदी लुप्त होती प्रजातियों से जनजातियों तक सबकी रक्षा करती है, अपने 5 बांधों से लाखों लोगों को सिंचाई का पानी और बिजली देती है और बिना भेदभाव किये हर किसी के जीवन को सवारती है.

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