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Book Review: Chitralekha by Bhagwati Charan Verma

 चित्रलेखा – एक दार्शनिक कृति की समीक्षा लेखक: भगवती चरण वर्मा   प्रस्तावना   हिंदी साहित्य के इतिहास में *चित्रलेखा* एक ऐसी अनूठी रचना है जिसने पाठकों को न केवल प्रेम और सौंदर्य के मोह में बाँधा, बल्कि पाप और पुण्य की जटिल अवधारणाओं पर गहन चिंतन के लिए भी प्रेरित किया। भगवती चरण वर्मा का यह उपन्यास 1934 में प्रकाशित हुआ था और यह आज भी हिंदी गद्य की कालजयी कृतियों में गिना जाता है। इसमें दार्शनिक विमर्श, मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और सामाजिक यथार्थ का ऐसा संलयन है जो हर युग में प्रासंगिक बना रहता है । मूल विषय और उद्देश्य   *चित्रलेखा* का केंद्रीय प्रश्न है — "पाप क्या है?"। यह उपन्यास इस अनुत्तरित प्रश्न को जीवन, प्रेम और मानव प्रवृत्तियों के परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करता है। कथा की बुनियाद एक बौद्धिक प्रयोग पर टिकी है जिसमें महात्मा रत्नांबर दो शिष्यों — श्वेतांक और विशालदेव — को संसार में यह देखने भेजते हैं कि मनुष्य अपने व्यवहार में पाप और पुण्य का भेद कैसे करता है। इस प्रयोग का परिणाम यह दर्शाता है कि मनुष्य की दृष्टि ही उसके कर्मों को पाप या पुण्य बनाती है। लेखक...

राष्ट्रीय मतदाता दिवस NATIONAL VOTER'S DAY : जागरूकता केवल नाम की या सच में जागरूक हो रहे मतदाता

राष्ट्रीय मतदाता दिवस, NATIONAL VOTER'S DAY

    25 जनवरी, भारत निर्वाचन आयोग (ECI) का स्थापना दिवस है। इस आयोग की स्थापना 1950 में की गई थी। इस दिन की शुरुआत पहली बार 2011, जी हां उसी साल की गई थी, जिस साल भारत ने धोनी के छक्के की बदौलत क्रिकेट विश्व कप जीत लिया था।


  • क्यों की गई इस दिन की शुरुआत:-

                                           भारतीय युवाओं को मतदान के प्रति चुनावी प्रक्रिया में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके, इसलिए 25 जनवरी को राष्ट्रीय मतदाता दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की गई।

  • भारतीय मतदाताओं की विशेषता:-

                                            भारत में युवाओं को मतदान के प्रति जागरूक करने के उद्देश्य से ही मतदाता पात्रता की आयु 21 वर्ष से घटा कर 18 वर्ष की गई थी। क्यूंकि भारत में युवाओं की संख्या बहुत अधिक है और इसकी पुष्टि 2011 के जनसंख्या आंकड़े करते हैं। भारतीय युवा वैसे तो बहुत समझदार, ईमानदार, नौतिक्तावादी एवम् विचारशील होते हैं। परन्तु वोट किसको देना है, इस गहन मुद्दे को समझ नहीं पाते और अपनी लोकतांत्रिक शक्ति को व्यर्थ कर देते हैं।

  • भावुकता:-


                इतिहास गवाह है कि भारतीय वोटर भावुक होते हैं। 1984 में तात्कालिक प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जैसे रातों रात राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनाया गया लेकिन भारतीय जनमानस इस ऐतिहासिक कदम के विरोध में नहीं बल्कि 1987 में प्रचण्ड बहुमत से राजीव गांधी के साथ खड़ी रही। भारतीय राजनीति में संवेदना मत यानी कि Sympathy Votes का अलग ही महत्व है। यदि किसी राजनेता के पिता का देहांत हो जाए तो अगला चुनाव उसके पुत्र या पुत्र द्वारा जीता जाना लगभग तय ही है, सिवाय इसके कि चचा - भतीजा आपस में सत्ता को लेकर लड़ने ना लगे।
        भारतीय राजनीति में ऐसे कई उदाहरण हैं जब जनता आरक्षण, स्थानीय मुद्दों और तो और जाति के नाम पर वोट मांगने से आगे बढ़कर केवल भाव जीत लेने वाले व्यक्ति को सर्वेसर्वा बना बैठती है, और बाद में जम्हूरे को जिल्लेइलाही बनने के कारण आलोचना का पात्र बनती है।

  • जातिवाद को प्राथमिकता:-

                                                यदि भारत में आज भी भुखमरी, अस्पताल, बिजली और यहां तक कि पानी जैसी मूलभूत आवश्यकताओं पर वोट मांगे जाते हैं तो इसकी जिम्मेदार भी स्वयं भारतीय मतदाता ही हैं। वे बड़ी बड़ी बातें करेंगे, आवश्यकतापूर्ति की दुहाई देंगे लेकिन जब बात वोट देने की आती है तो आज भी लोग मुद्दों और समस्यों को भुलाकर केवल एक बात फुसफुसाते हैं, " उ सब तो ठीक बा, पर ई बताई कि बउआ काउन जात का हीं।" सारी समस्याएं, उनके समाधान, नए मुद्दे, नया माहौल, विकास , प्रगति, नया दौर और मतदाता जागरूकता सब धरी की धरी रह जाती है, नतीजा वही ढाक के तीन पात वाला निकलकर सामने आता है। उत्तर भारत में एक कहावत प्रचलित है कि पब्लिक यहां सांसद या विधायक नहीं, बल्कि अपना रिश्तेदार चुनती है। शेष भारत की अन्य भाषाओं में इसी से मिलती जुलती कोई ना कोई लोकोक्ति अवश्य है लोकप्रिय होगी। लेकिन ये "रिश्तेदार" अपने "स्वजनों" से भला पाने के एवज में मुल्क के साथ दगा कर देते हैं जिसके परिणामस्वरूप घपले, घोटाले और हेराफेरी के मामले सामने आते हैं। और इन राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता पाने वाले बहुचर्चित, बहुप्रसिद्ध "कर्मकांडो" की "स्वदान" राशि ऐसे शब्दों में होती है जिसको यदि अंकों में परिलक्षित करना हो तो "तथाकथित" रिश्तेदारों की सात पीढ़ियों में से परम मेधावी व्यक्तित्व को भी सिर के बाल नोचने पर विवश के दे।


            और जब कच्चा चिट्ठा खुलता है तो यही रिश्तेदार " सब के सब चोर ही होते है, सब चोर हैं, घोर कलियुग है, अब क्या है किया जा सकता है?" कहकर नि:श्वास होते हुए कंधे उचका कर कर्तव्य परायण बनकर पतली गली से निवृत्ति पाते हैं। यहां प्रश्न यह है, कि उनको चोर बनने का मौका किसने दिया? चंद रुपयों, एक रात की मदिरा और कुछ रात्रियों के तामसिक भोजन के एवज में हम मन में चोर पाले बैठे लोगों का प्रायोगिक चोर बनने का मार्ग प्रशस्त कर देते हैं।
                    क्या यहां वोटरों की कोई जिम्मेदारी नहीं है? यदि है तो उस दिव्य ज्ञान को याद दिलाने हेतु किसी जमुवंत का इंतजार इंतजार क्यों कर रहे हैं? जम्वंत तो आज भी उपलब्द हैं ज्ञान याद दिलाने के लिए, वे ज्ञान याद दिलाने का प्रयास भी कर रहे हैं परन्तु रामायण के श्री राम के चरित्र को अपने मानस में धारण करने वाली भारतीय जनता यह क्यों नहीं समझ पा रही कि हनुमान जी ने अपनी शक्तियों को पहचानने वाले प्रयास स्वयं ही किए थे। जमुवंत केवल प्रेरणा दे सकते हैं, प्रयास हनुमान लो स्वयं करने होंगे। और जिस दिन ये प्रयास रंग लाने लगे यकीन मानिए भारतीय वोटरों का विराट रूप ही परिलक्षित होगा और वे अभाव रूपी इस सागर को केवल एक प्रयास में ही पार के लेंगे।

  • भीरू मतदाता:-

                                      यह भी तथ्य है कि भारत के लोकतांत्रिक मंदिर में लगभग 50% कालनेमी, पुजारी बनकर बैठे हैं। 50% से अधिक सांसद और विधायक प्रत्येक पार्टी में ऐसे हैं जो या तो अपराधिक मामलों को सजा काट चुके  हैं या जिनपर अपराधिक मामले दर्ज हैं। यहां मुद्ददा यह है कि ये अपराधी उस मुकाम तक पहुंचे कैसे? सबसे पहली बात तो ये कि हर बड़ा अपराधी कभी ना कभी छोटा अवश्य होता है। और जिस दिन वह चुनाव लडने चला भी आता है ( इस बारे में चुनाव आयोग को विचार अवश्य करना चाहिए) तो क्या मतदाता कोई कठपुतली हैं? उनका स्वयं के विवेक क्या किसी सैर पर निकल जाता है? क्या उन्हे नहीं पता कि चुनाव गोपनीय हैं? आप पहले अराजक तत्व को सत्ता में लाएंगे और फिर जब वो अपनी प्रवत्ति के अनुसार उत्पात मचाता है तो उसी से त्रस्त होकर त्राहिमाम - त्राहिमाम करेंगे। शांतिपूर्ण तरीके से वोट देने जाएं और जो पसंद हो उसको वोट दें। ना तो कोई संजय है यहां, और ना ही अब किसी के पास दिव्य चक्षु हैं। बेशक ये बड़ी बचकानी बात लग रही होगी लेकिन यदि किसी सज्जन के पास इसका प्रतिवाद है तो मैं स्वयं व्यक्तिगत रूप से उसे जानने को इच्छुक हूं।

  • पुरुषप्रधान मानसिकता:-

                                                   देश में महिलाओं को वोट देने का अधिकार उसी वर्ष मिल गया था जिस दिन ये देश पुनर्जन्म हुआ। लेकिन आज़ादी के 70 साल बाद भी 2 करोड़ से ज़्यादा महिलाएं एक बार भी वोट नहीं दे पाई है। आखिर क्यों? भारतीय जनमानस यह कब समझेगा कि महिलाएं केवल गृह- लक्ष्मी नहीं हैं। वह केयरटेकर से बहुत आगे जाकर मेकओवर पर ध्यान देती हैं। 2019 लोकसभा के चुनावी आंकड़े यह साबित कर है रहे हैं। यहां केवल वोट देने की ही बात नहीं है। यहां समाज के स्थान विशेष से निकलकर महिलाओं को समाज के विशेष स्थान पर बैठने तक बैठ कर, अपनी कार्य कुशलता सिद्ध करने की बात है। 
                        
                                    यह तथ्य जगजाहिर है कि यदि महिलाओं को मंच मिले तो वे स्थान जमाना और लोगो के दिलो पर राज करना जानती हैं। स्वर्गीय सुषमा स्वराज जब भारत की विदेश मंत्री थी, तभी ऐतिहासिक रूप से निर्मला सीतारमण को रक्षा मंत्रालय दिया गया था, ठीक उसी समय समय राजनाथ सिंह गृह मंत्रालय संभाल रहे थे। यहां अभिप्राय यह है कि यदि मार्ग, मंच पर आने को मौका और हुनर दिखलाने का अवसर एक साथ मिले तो महिलाएं सब कुछ कर सकती हैं। लेकिन किसी समय में स्त्रैण मानसिकता से प्रभावित भारतीय समाज के पुरुष प्रधान मानसिकता से ग्रस्त कुछ व्यक्ति यह नहीं देख पाए कि मुख्य नेतृत्व यह इशारा कर रहा है कि यदि मौका मिले तो महिलाएं पुरुषों से "घर" संभालवा कर स्वयं "रक्षा सुरक्षा" एवम् विदेश मामले सुलझाने का सामर्थ्य रखती हैं। आधुनिक भारत में महिला सशक्तिकरण का इससे उत्तम उदाहरण शायद ही कोई दूसरा मिले।



      यदि उपरोक्त उदाहरण से आपको संतोष, खुशी एवम् चित्त शांति मिली हो तो इस पर अवश्य ध्यान दें कि यह सब हुआ कैसे? यह सब हुआ सफल मतदान से जहां मतदाताओं ने परम्परागत रूढ़ियों को धता बताते हुए नए उम्मीदवारों को मौका दिया और उन्होंने भी राजनीति की उच्चतम सीढ़ी पर बैठ कर यह सिद्ध किया कि मतदाता यदि जिम्मेदार, सशक्त हो तो यह उपलब्धि भी हासिल की जा सकती है।

  • लोभी मतदाता:- 

                                     विगत वर्षों में जनता को सत्ता में आने पर भौतिक वस्तुएं मुफ्त में देने के वायदे बड़े चर्चित रहें हैं। टेलीविजन से शुरू हुआ सुदूर दक्षिण भारत में चला ये पैंतरा समस्त भारतवर्ष में फैलता जा रहा है। लोभ का प्रपंच देकर आधुनिक युग की आवश्यकता बनती जा रही वस्तुएं जैसे टैबलेट, लैपटॉप, मोबाइल इत्यादि तक पहुंच चुका है। इसके साथ ही ‌ऋण माफी जैसे तरकीबी तीर जनता की ओर छोड़े जाते हैं जिन्हें जनता लोभ के कारण बिना सोच विचार के सीना चौड़ा कर स्वीकार तो कर लेती है परन्तु दीर्घ अवधि में यही तीर उसी जनता की छाती को चीर डालने के बाद नासूर बन जाते हैं। वे यह नहीं सोचते, यह नहीं विचारते कि इस योजना को पल्लवित करने के लिए जो धनराशि लगेगी वो कौन से कुबेर के खजाने से निकलेगी? वह जहां कहीं से भी निकले उसकी मार तो आयकर दाताओं की पीठ पर है पड़ेगी; और जब पड़ेगी तब बड़ी जोर की पड़ेगी। ऐसी योजनाओं को घोषणा केवल सत्ता हथियाने दौड़ को जीत कर सिंहासन कब्जाने के लिए की जाती है। क्यूंकि इतिहास गवाह है कि जीत के बाद इन्हीं योजनाओं के अंदर इतनी टर्म्स एंड कंडिशंस एप्लाई कर दी जाती है कि जिस जिस ने उसको पाने का दिवास्वप्न देखा होता है, वह चकनाचूर हो जाता है। यदि सिंहासन को हथियाने का ही उद्देश्य ना होता तो "जनता की सेवा"  करने के लिए उसको लोभ देने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। इससे यह भी सिद्ध हो रहा है कि उनके पास यथार्थ में कोई मुद्दा है नहीं है। यदि होता तो इस प्रपंच की कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ती। 

  • भारत का निर्वाचन आयोग:-


                                                        सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयानुसार अनु 324[1] मे निर्वाचन आयोग की शक्तियाँ कार्यपालिका द्वारा नियंत्रित नहीं हो सकती उसकी शक्तियां केवल उन निर्वाचन संबंधी संवैधानिक उपायों तथा संसद निर्मित निर्वाचन विधि से नियंत्रित होती है निर्वाचन का पर्यवेक्षण, निर्देशन, नियंत्रण तथा आयोजन करवाने की शक्ति मे देश मे मुक्त तथा निष्पक्ष चुनाव आयोजित करवाना भी निहित है जहां कही संसद विधि निर्वाचन के संबंध मे मौन है वहां निष्पक्ष चुनाव करवाने के लिये निर्वाचन आयोग असीमित शक्ति रखता है यधपि प्राकृतिक न्याय, विधि का शासन तथा उसके द्वारा शक्ति का सदुपयोग होना चाहिए.



  •  भारतीय निर्वाचन आयोग की शक्ति सीमा :-

                                                                                निर्वाचन आयोग विधायिका निर्मित संवैधिनिक कानूनों का उल्लघँन नहीं कर सकता है और न ही ये स्वेच्छापूर्ण कार्य कर सकता है उसके निर्णय न्यायिक पुनरीक्षण के पात्र होते है
निर्वाचन आयोग की शक्तियाँ निर्वाचन विधियों की पूरक है न कि उन पर प्रभावी तथा वैध प्रक्रिया से बनी विधि के विरूद्ध प्रयोग नही की जा सकती है
यह आयोग चुनाव का कार्यक्रम निर्धारित कर सकता है चुनाव चिन्ह आवंटित करने तथा निष्पक्ष चुनाव करवाने के निर्देश देने की शक्ति रखता है.
                                              
                                    भारतीय मतदाताओं को वोटंग के चलते होने वाले नुक़्सानो का भी ज़िक्र करना भी अति महत्त्वपूर्ण है।  भारतीय अर्थव्यस्था में युवा आज भी अपने घर से बहार रह कर रोजगार पाते हैं जिस कारण से उनके निर्वाचन क्षेत्र में भिन्न तिथियों को निर्वाचन होआ है, उस जगह से जहाँ वो रह रहे हैं।  उदाहरण के लिए यदि कोई व्यस्क बिहार का रहने वाला है, और वो मुंबई में जॉब करता है तो जिस दिन बिहार में चुनाव होगा उस दिन मुंबई में नहीं होगा, उसी प्रकार जिस दिन महाराष्ट्र में चुनाव होगा उस दिन बिहार में हुई होगा।  अब समस्या ये है कि भारतीय युवा उपभोक्तावादी मानसिकता से ग्रसित होआ जा रहा है।  वह चुनाव वाले क्षेत्र में मतदान करने के अपने राष्ट्रीय कर्त्तव्य को ये कह कर छोड़ देगा कि "कौन इतना दूर जाये और खर्चा करे, वैसे भी मेरे एक वोट से कुछ होने वाला नहीं है। " और बाद में जब नाकाबिल लोग उसकी कमर तोड़ रहे होंगे तब वह भगवान् को दोष देगा और अगली बार बार बार यही गलतियां दोहराएगा।  भारतीय युवा में भारत के नागरिक होने से ज़्यादा भारत के उपभोक्ता बनने कि मानसिकता विकसित हो रही है; और ये अच्छा नहीं है।  उपभोग तो विदेशी करते हैं, अपने नागरिक तो देश सेवा करते हैं।  यदि यही मानसिकता बानी रही तो भारत मानसिक रूप से गुलाम अवश्य हो जायेगा और ये देश और देशवासिओ के लिए बिलकुल अच्छा संकेत नहीं है। 
                            भारतीय निर्वाचन आयोग को चाहिए कि भारतीय युवाओं में देशभक्ति जगाये और उन्हें देश के प्रति उनकी जिम्मेदारी का एहसास कराएं।  अन्यथा यह देश इस बार बिना आक्रांताओं के दास बनता जायेगा और हमको पता भी नहीं चलेगा।  निर्वाचन आयोग को चाहिए कि वह पूर्णरूप से सुरक्षित ऑनलाइन वोटिंग का रुख अपनाये जिससे घर से बहार रह रही जनता भी राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सके।  साथ ही साथ भारत्या सरकार भी निर्वाचन आयोग को थोड़ी अधिक स्वतंत्रता प्रदान करे जिससे निर्वाचन आयोग भली भांति आतम निर्भर कदम उठा सके और भारत को अधिक मूल्यवान बनाने में सहयोग कर सके।  
                        इसके साथ ही भारतीय युवा भी सक्रिय राजनीति में भाग लेकर इन सब समस्यायों के प्रति समाज को जागरूक कर सकते हैं।  यदि आपको उसके ऊपर ब्लॉग चाहिए तो नीचे कमेंट में लिख दीजिये।  

इस मतदाता दिवस ये आशा करते हैं कि भारतीय मतदाता सच में जागरूक होगा, लोभी प्रपंचों से सतर्क होगा, बाहुबली नेताओं से सतर्क रहेगा और लोकतंत्र को सुरक्षित रखने कि प्रति अपने दायित्व को समझेगा।

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An article by Abhinav Singh, on the occasion of  National Voter's Day.

















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