चित्रलेखा – एक दार्शनिक कृति की समीक्षा
लेखक: भगवती चरण वर्मा
प्रस्तावना
हिंदी साहित्य के इतिहास में *चित्रलेखा* एक ऐसी अनूठी रचना है जिसने पाठकों को न केवल प्रेम और सौंदर्य के मोह में बाँधा, बल्कि पाप और पुण्य की जटिल अवधारणाओं पर गहन चिंतन के लिए भी प्रेरित किया। भगवती चरण वर्मा का यह उपन्यास 1934 में प्रकाशित हुआ था और यह आज भी हिंदी गद्य की कालजयी कृतियों में गिना जाता है। इसमें दार्शनिक विमर्श, मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और सामाजिक यथार्थ का ऐसा संलयन है जो हर युग में प्रासंगिक बना रहता है ।
मूल विषय और उद्देश्य
*चित्रलेखा* का केंद्रीय प्रश्न है — "पाप क्या है?"। यह उपन्यास इस अनुत्तरित प्रश्न को जीवन, प्रेम और मानव प्रवृत्तियों के परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करता है। कथा की बुनियाद एक बौद्धिक प्रयोग पर टिकी है जिसमें महात्मा रत्नांबर दो शिष्यों — श्वेतांक और विशालदेव — को संसार में यह देखने भेजते हैं कि मनुष्य अपने व्यवहार में पाप और पुण्य का भेद कैसे करता है। इस प्रयोग का परिणाम यह दर्शाता है कि मनुष्य की दृष्टि ही उसके कर्मों को पाप या पुण्य बनाती है। लेखक के शब्दों में — *“संसार में पाप कुछ भी नहीं है, वह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है।”* यह विचार उपन्यास की आत्मा है और यही इसे अन्य सामाजिक या प्रेमकथाओं से अलग बनाता है ।
उपन्यास की विशेषताएँ (Pros)
- वर्मा जी का लेखन दार्शनिक गहराई और मानवीय मनोविज्ञान की सटीक पड़ताल के लिए प्रसिद्ध है। *चित्रलेखा* में उन्होंने भावनाओं के चरम बिंदुओं को बड़ी सूक्ष्मता से प्रस्तुत किया है ।
- चित्रलेखा का पात्र स्त्री की स्वतंत्रता का प्रतीक है — वह अपनी ज़िंदगी अपने निर्णयों से जीती है और समाज की रूढ़ियों को चुनौती देती है। इस रूप में वह भारतीय साहित्य की सबसे सशक्त महिला पात्रों में से एक है ।
- भाषा और शैली अत्यंत सरल परंतु प्रभावशाली है। लेखक ने संवादों के माध्यम से गहन विषयों को भी सहजता से प्रस्तुत किया है।
- कथा की मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि, विशेषकर श्वेतांक और चित्रलेखा के मध्य संवाद, विचारोत्तेजक हैं और जीवन के नैतिक द्वंद्वों का यथार्थ चित्रण करते हैं ।
सीमाएँ (Cons)
- उपन्यास का दार्शनिक पक्ष कभी-कभी अधिक प्रबल होकर इसकी कथात्मक सघनता को कम कर देता है।
- सामान्य पाठक के लिए कई संवाद और चिंतनात्मक अंश कठिन प्रतीत हो सकते हैं।
- चित्रलेखा के दुखांत जीवन को कुछ समीक्षक भावनात्मक अतिशयोक्ति मानते हैं।
स्मरणीय उद्धरण
1. “संसार में पाप कुछ भी नहीं है, वह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है।”
2. “व्यक्तित्व की उत्कृष्टता किसी बात को काटने में नहीं, बल्कि उसे सिद्ध करने में है।”
3. “मनुष्य वही श्रेष्ठ है, जो अपनी कमजोरियों को जानकर उन्हें दूर करने का प्रयत्न करे।”
निष्कर्ष
समापन में कहा जा सकता है कि *चित्रलेखा* केवल एक प्रेम कहानी नहीं, बल्कि मनुष्य के अंतर्मन और उसकी प्रवृत्तियों की गहराई तक उतरने वाला दार्शनिक दस्तावेज़ है। इसमें नायक-नायिका के संवादों के माध्यम से लेखक ने जीवन, पाप, नैतिकता और प्रेम के संबंधों को नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है। यह उपन्यास जीवन को केवल नैतिकता या अनैतिकता के बंधन में नहीं बाँधता, बल्कि यह दिखाता है कि मनुष्य का हर कर्म उसकी परिस्थिति और दृष्टिकोण का परिणाम होता है। इसी कारण से *चित्रलेखा* आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी अपने प्रकाशन के समय थी — एक ऐसी रचना जो विचार, संवेदना और दर्शन तीनों स्तरों पर पाठक को समृद्ध करती है ।
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