चम्बल का इतिहास क्या हैं? ये वो नदी है जो मध्य प्रदेश की मशहूर विंध्याचल पर्वतमाला से निकलकर युमना में मिलने तक अपने 1024 किलोमीटर लम्बे सफर में तीन राज्यों को जीवन देती है। महाभारत से रामायण तक हर महाकाव्य में दर्ज होने वाली चम्बल राजस्थान की सबसे लम्बी नदी है। श्रापित और दुनिया के सबसे खतरनाक बीहड़ के डाकुओं का घर माने जाने वाली चम्बल नदी मगरमच्छों और घड़ियालों का गढ़ भी मानी जाती है। तो आईये आज आपको लेकर चलते हैं चंबल नदी की सेर पर भारत की सबसे साफ़ और स्वच्छ नदियों में से एक चम्बल मध्य प्रदेश के इंदौर जिले में महू छावनी के निकट स्थित विंध्य पर्वत श्रृंखला की जनापाव पहाड़ियों के भदकला जलप्रपात से निकलती है और इसे ही चम्बल नदी का उद्गम स्थान माना जाता है। चम्बल मध्य प्रदेश में अपने उद्गम स्थान से उत्तर तथा उत्तर-मध्य भाग में बहते हुए धार, उज्जैन, रतलाम, मन्दसौर, भिंड, मुरैना आदि जिलों से होकर राजस्थान में प्रवेश करती है। राजस्थान में चम्बल चित्तौड़गढ़ के चौरासीगढ से बहती हुई कोटा, बूंदी, सवाईमाधोपुर, करोली और धौलपुर जिलों से निकलती है। जिसके बाद ये राजस्थान के धौलपुर से दक्षिण की ओर
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तेलंगाना के हैदराबाद शहर में दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी बैठी हुई मूर्ति जिसकी लंबाई 216 फुट है, का आज अनावरण किया। इसे स्टैचू आफ इक्वलिटी बोला जा रहा है इसका दूसरा नाम रामानुजा स्टैचू भी है। श्री रामानुजन को भक्ति आंदोलन में समाज के सभी वर्ग एवं सभी तबकों को एक साथ लेकर चलने के लिए प्रेरित करने का श्रेया जाता है। इसीलिए श्री रामानुज के स्टैचू को स्टैचू आफ इक्वलिटी कहा गया है। स्टैचू आफ इक्वलिटी पंच लोहा यानी कि सोना चांदी तांबा पीतल और जस्ता से मिलाकर बना है। जिसकी अनुमानित कीमत लगभग 1000 करोड़ रुपए है। यह सारा पैसा रामानुज को मानने वाले अलग-अलग देशों के अलग-अलग भक्तों ने चंदे के स्वरूप दिया है। पुतले को बनाने की संकल्पना श्री चिन्ना जियर स्वामी द्वारा दी गई थी।
7 फरवरी को उसी जगह पर एक दूसरा स्टेचू भी भारत के राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद द्वारा अनावृत किया जाएगा जिसमें 120 किलो सोने का प्रयोग होगा। 120 किलो सोने का प्रयोग इसलिए किया जा रहा है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि श्री रामानुज इस धरती पर 120 वर्षों तक जीवित रहे थे।
Statue of Equality |
7 फरवरी को उसी जगह पर एक दूसरा स्टेचू भी भारत के राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद द्वारा अनावृत किया जाएगा जिसमें 120 किलो सोने का प्रयोग होगा। 120 किलो सोने का प्रयोग इसलिए किया जा रहा है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि श्री रामानुज इस धरती पर 120 वर्षों तक जीवित रहे थे।
समाज के सभी वर्गों को एक साथ लेकर चलने की प्रेरणा देना, विश्व के लिए वसुधैव कुटुंबकम का आदर्श वाक्य प्रस्तुत करना, जिसका भारत आज भी पूर्ण रूप से पालन करता है, एवं भारत में भक्ति आंदोलन की शुरुआत करना श्री रामानुज द्वारा किए गए कई अति महत्वपूर्ण कार्य हैं।
श्री रामानुज के शिष्यों में हर जाति एवं वर्ण के लोग आते हैं जिनमें कबीर दास, अंयम आचार्य, भक्त रामदास, गुरु रैदास, त्यागराज, एवं मीराबाई भी सम्मिलित हैं।
आज के इस ब्लॉग में हम आपको यह बताएंगे कि श्री रामानुज कौन थे एवं उन्होंने समाज में अपनी प्रतिष्ठा कैसे हासिल की?
- Who is Ramanujana:-
विशिष्टाद्वैत के प्रणेता आचार्य रामानुज का जन्म विक्रम संवत 1074 अर्थात 4 अप्रैल 1017 ईस्वी में हुआ था। उनके पिता असुरी केशवाचार्य या केशव यज्वन् वैदिक पंडित थे। माता का नाम श्रीमती कांतिमती था। बचपन से ही रामानुज की बुद्धि अत्यंत विलक्षण थी। इस कारण 15 वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने सभी शास्त्रों का गहन अध्ययन कर लिया था। 16 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह हुआ इनकी पत्नी का नाम रक्षंबा था।
पिता के देहावसान के उपरांत रामानुज कांची आ गए। उत्तर भारत में काशी की तरह ही कांची ज्ञान विज्ञान का केंद्र था और आज भी उसे दक्षिण की काशी के नाम से जाना जाता है।
कांची आकर रामानुज ने प्रसिद्ध विद्वान यादवप्रकाश से दीक्षा ली। यादवप्रकाश इनके गुरु तो थे पर धीरे-धीरे रामानुज की विद्वता से ईर्ष्या करने लगे। गुरु का शिष्य के प्रति द्वेष भाव इतना बढ़ गया कि उन्होंने रामानुज को यात्रा के निमित्त बाहर भेज दिया और उनकी हत्या का षड्यंत्र किया। पर भगवान वरदराज ने इनके प्राणों की रक्षा की।
रामानुज, कांची लौट आए। वहां कांची पूर्ण नाम भगवत भक्त के सानिध्य में आए। कांची फोन छोटी जाति के थे पर तब भी रामानुज ने उन्हें अपने गुरु के रूप में स्वीकार किया।
दक्षिण भारत का एक प्रसिद्ध तीर्थ श्रीरंगपीठम है। वही वेदांत के सर्वश्रेष्ठ विद्वान यमुनाचार्य रंगपीठ की गद्दी पर आसीन थे। रामानुज की प्रशंसा सुनकर यमुनाचार्य ने उन्हे श्रीरंगम में आमंत्रित किया। किंतु श्री रामानुज का दुर्भाग्य था कि उनके श्रीरंगम पहुंचने तक यमुनाचार्य जी का निधन हो गया था और उनकी अर्थी की तैयारी हो रही थी। रामानुज ने लक्ष्य किया कि यमुना चार्य जी की मृत्यु दे में हाथ की 3 अंगुलियां टेढ़ी हैं। वे इन 3 उंगलियों का संकेत समझ गए। अतः इस महान संत को श्रद्धांजलि देते समय उन्होंने प्रतिज्ञा की कि वे यमुनाचार्य की तीन पूरित कामनाओं को पूरा करेंगे। यह कामनाएं थी-
- ब्रह्म सूत्र एवं विष्णु सहस्रनाम पर टीका करना
- दिल्ली के तत्कालीन सुल्तान के यहां से श्री राम मूर्ति का उद्धार करना
- दिग्विजय पूर्वक विशिष्टताद्वैत मत का प्रचार करना
रामानुज द्वारा यह प्रतिज्ञा करते ही चमत्कारिक घटना हुई कि यमुनाचार्य की तीनों टेढ़ी उंगलियां सीधी हो गई। उनके अंतिम संस्कार के बाद रामानुज उनके शिष्य श्री गोष्टी पूर्ण के पास परम गोपनीय नारायण मंत्र प्राप्त करने गए।
श्री गोष्टी नारायण ने रामानुज को नारायण मंत्र की दीक्षा देने से पूर्व यह शर्त रखी कि वह इस मंत्र को परम गोपनीय रखेंगे और किसी अन्य को नहीं बताएंगे क्योंकि जो कोई इसे सुनेगा वह अवश्य ही शरीर अंत होने पर मुक्ति प्राप्त करके वैकुंठधाम प्राप्त करेगा।
रामानुजन ने शर्त स्वीकार कर ली श्री गोष्टी नारायण ने रामानुज को मंत्र दिया मंत्र बल से रामानुज को दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ।
दिव्य ज्ञान प्राप्त कर जब वे श्रीरंगम की ओर बढ़े तो उनके मन में यह भाव आया कि क्यों ना इस मंत्र को सर्वसाधारण को बता दिया जाए ताकि सब का कल्याण हो सके।
गुरु ने प्रतिज्ञा भंग करने के लिए नर्क वास कब है दिखाया तो रामानुज ने कहा गुरुदेव जन-जन के मोक्ष के बदले मैं अकेला नरक वास को उचित समझता हूं।
रामानुज की इस सरल उधार एवं परोपकारी भावना से श्री गोष्टी पूर्ण अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने रामानंद से कहा- "तुम विष्णु के अंश हो आज से तुम मेरे गुरु हुए।"
भगवान विष्णु को प्राप्त करने वाला वह परम गोपनीय मंत्र निम्न है -
"ओम नमो भगवते वासुदेवाय "
रामानुज ने सारे भारत की यात्रा की और भागवत धर्म की युगानुकूल व्याख्या की। अनेक स्थानों पर मंदिरों का निर्माण किया और भक्ति के द्वार सबके लिए खोल दिए।
रामानुज ने सूत्र जादिकेथा गुरदास को अपना शिष्य प्रदान किया। यदुगिरी के मंदिर में सभी वर्गों के लोगों का प्रवेश करवाया। दिल्ली नरेश से बैठकर यादव आदि पाती के देव मूर्ति वापस लेकर आए और मंदिर में उस मूर्ति की पुनर्स्थापना करवाई।
इस प्रकार अनेक वर्षों तक ज्ञान और भक्ति की गंगा बहाते हुए श्री हिंदू संस्कृति का पुनरुत्थान तथा सामाजिक जागरण का महान कार्य करते हुए रामानुजाचार्य एक 120 वर्ष की आयु में ब्रह्मलीन हुए।
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