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काग के भाग बड़े सजनी

  पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी।  दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आ...

Basant Panchmi Special: इस बसंत पंचमी जानिए वीर हकीकत राय का बलिदान

वीर हकीकत राय का जन्म 1719 में पंजाब के सियालकोट नगर में हुआ था। वे अपने पिता भागमल के इकलौते पुत्र थे। श्री भागवत व्यापारी थे पर उनकी इच्छा थी कि उनका पुत्र पढ़ लिखकर बड़ा अधिकारी बने। इसीलिए उन्होंने हकीकत राय को एक मदरसे में फारसी सीखने भेजा।
वीर हकीकत राय
वीर हकीकत राय
इस मदरसे में पढ़ने वाले अधिकांश छात्र मुसलमान थे और पढ़ाने वाले मौलवी जी थे। अपनी प्रतिभा और कुशाग्र बुद्धि के कारण हकीकत राय ने मौलवी जी का मन जीत लिया। अतः वह उसकी पढ़ाई में विशेष ध्यान देने लगे जिस कारण इसके अन्य साथी उससे ईर्ष्या करने लगे। इनमें रशीद और अनवर प्रमुख थे। वह मौका मिलने पर हकीकत को तंग करते और जान से मारने की धमकी देते।
एक दिन रशीद और अनवर ने मदरसे से लौटते समय हकीकत की पिटाई करनी चाही। उसके कपड़े फाड़ दिए।
भागमल ने दूसरे दिन इस घटना की शिकायत मदरसे में जाकर मौलवी जी से की मौलवी जी ने अनवर तथा रशीद को सजा दी।
दूसरे दिन फिर प्रतिशोध लेने की भावना से अनवर और रसीद ने मदरसे से लौटते समय रास्ते में हकीकत को छेड़ने की गरज से उसे कबड्डी खेलने का निमंत्रण दिया।
हकीकत में खेलने के प्रति अपनी अनिच्छा प्रकट की। पर जब वे दोनों बार-बार आग्रह करने लगे तो हकीकत ने कहा
"भाई माता भवानी की सौगंध आज मेरा खेलने का बिल्कुल भी मन नहीं है।"

इस पर अनवर ने कहा- "अबे भवानी मां के बच्चे एक पत्थर के टुकड़े को मां कहते हुए तुझे शर्म नहीं आती। मैं तुम्हारी देवी को सड़क पर फेंक दूंगा। जिससे रास्ता चलते लोग लातों से तुम्हारी मां भवानी की पूजा कर सकें।"

माता भवानी के प्रति इन शब्दों को सुनकर हकीकत के स्वाभिमान को चोट पहुंची। तिल मिलाकर उसने कहा- "यदि यही बात मैं तुम्हारी पूजा फातिमा बीवी के लिए कह दूं तो तुम्हें कैसा लगेगा?"

अनवर ने क्रोध में भरकर कहा हम तुम्हारे शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर देंगे।
तो हकीकत को भी क्रोध आ गया। उसने कहा "जब तुम हमारी भवानी माता के लिए अपशब्दों का प्रयोग कर सकते हो तो मैं भी फातिमा बीवी के लिए कुछ भी कह सकता हूं।"

बात बढ़ गई। पास पड़ोस के लोग इकट्ठे हो गए। मौलवी जी को बुलाया गया। मौलवी जी ने हकीकत राय से क्षमा मांगने के लिए कहा। इस पर हकीकत ने कहा "मैंने कोई गुनाह नहीं किया तो मैं क्षमा क्यों मांगू।"

इस पर लड़कों ने हकीकत को बांध लिया और काजी के पास ले गए। घटना का पूरा विवरण सुनकर का जी ने हकीकत से पूछा क्या तुमने रसूल जादी फातिमा बीवी को गाली दी?
हकीकत ने साफ-साफ सारा विवरण बताते हुए कहा कि उसने गाली नहीं दी। इस पर kaazi भड़क गया और उसने निर्णय सुनाते हुए कहा इस लड़के को यदि अपनी जान बचानी है तो इसे इस्लाम कुबूल करना होगा।
हकीकत ने सुनकर शेर की तरह गरज कर कहा- "मैं अपना धर्म छोड़कर इस्लाम कभी भी स्वीकार नहीं करूंगा।"

हकीकत राय के पिता भाग मैंने उसे अपनी जान बचाने के लिए इस्लाम स्वीकार करने के लिए बहुत समझाया पर हकीकत ने पिता की बात भी नहीं मानी।
भागमल ने काजी को लाहौर के बड़े हाकिम के पास शिकायत करने की धमकी दी पर काजी तब भी नहीं माना।
उन दिनों लाहौर का नाजिम शाह नाजिम था। भाग मलने हाकिम के कार्यालय में पहुंचकर उसे पूरा विवरण सुनाया और हकीकत राय को मौत की सजा सुनाए जाने के सियालकोट के काजी के फैसले से भी अवगत कराया पर हाथ करने का जी के फैसले की पैरवी करते हुए उसी का पक्ष लिया।
कुछ देर बाद का काजी भी हाकिम के पास पहुंच गया। हाकिम ने उससे भी पूरी घटना का विवरण सुना। तब हाकिम ने कहा अच्छा अब हम खुद हकीकत से पूछ कर फैसला करेंगे।
बालक हकीकत को दरबार में उपस्थित किया गया। पिता को देखते ही वह उनसे लिपट गया। हाकिम को सलाम करने पर भी उसे ध्यान ना रहा। हकीकत के इस व्यवहार से हकीम ने चढ़कर कहा तुम कैसे बदतमीज लड़के हो तुमने हमें सलाम तक नहीं किया। हकीकत राय ने उत्तर दिया "हाकिम साहब जुर्म करने वालों को मैं सलाम करना उचित नहीं समझता।"

तब हकीकत राय के इस कथन से हाकिम शाह नाजिम का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया। उसने हकीकत राय से अपने जीवन रक्षा के लिए वही शर्त रखी जो काजी ने रखी थी, पर हकीकत ने तब भी अपने निर्णय पर अटल रहते हुए कहा अपने धर्म को त्याग कर पाई गई जिंदगी से मौत हजार गुना श्रेष्ठ है। मैं अपने प्राण दे दूंगा परंतु अन्याय के सामने नहीं झुकुंगा।

और अंत में हकीकत राय को तत्कालीन शासकों की धार्मिक कट्टरता के कारण अपने प्राण गंवाने पड़े। जल्लाद के एक ही वार से हकीकत राय का सिर काटकर अलग कर दिया गया।
उसकी पत्नी पति की मृत्यु के साथ सती हो गई और माता पिता ने पुत्र के वियोग में विलाप करते करते हैं अपने प्राण त्याग दिए। धर्म की रक्षा के लिए इस किशोर बालक का बलिदान स्मरणीय रहेगा।
जिस दिन वीर हकीकत राय को मृत्युदंड दिया गया वह दिन बसंत पंचमी का था। इसीलिए बसंत पंचमी के दिन माता सरस्वती के साथ हकीकत राय के बलिदान को भी याद किया जाता है।

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