.. जब समोसा 50 पैसे का लिया करता था तो ग़ज़ब स्वाद होता था... आज समोसा 10 रुपए का हो गया, पर उसमे से स्वाद चला गया... अब शायद समोसे में कभी वो स्वाद नही मिल पाएगा.. बाहर के किसी भोजन में अब पहले जैसा स्वाद नही, क़्वालिटी नही, शुद्धता नही.. दुकानों में बड़े परातों में तमाम खाने का सामान पड़ा रहता है, पर वो बेस्वाद होता है.. पहले कोई एकाध समोसे वाला फेमस होता था तो वो अपनी समोसे बनाने की गुप्त विधा को औऱ उन्नत बनाने का प्रयास करता था... बड़े प्यार से समोसे खिलाता, औऱ कहता कि खाकर देखिए, ऐसे और कहीं न मिलेंगे !.. उसे अपने समोसों से प्यार होता.. वो समोसे नही, उसकी कलाकृति थे.. जिनकी प्रसंशा वो खाने वालों के मुंह से सुनना चाहता था, औऱ इसीलिए वो समोसे दिल से बनाता था, मन लगाकर... समोसे बनाते समय ये न सोंचता कि शाम तक इससे इत्ते पैसे की बिक्री हो जाएगी... वो सोंचता कि आज कितने लोग ये समोसे खाकर वाह कर उठेंगे... इस प्रकार बनाने से उसमे स्नेह-मिश्रण होता था, इसीलिए समोसे स्वादिष्ट बनते थे... प्रेमपूर्वक बनाए और यूँ ही बनाकर सामने डाल दिये गए भोजन में फर्क पता चल जाता है, ...
21 दिसंबर से 27 दिसंबर का समय गुरु परिवार और
उनके सहयोगियों के बलिदान को याद करने का समय है…
पुराने बुजुर्ग बताते हैं कि- पहले पंजाब में 21 दिसंबर से लेकर 27 दिसम्बर तक का समय “शोक सप्ताह” के रूप में मनाया जाता था. इस पूरे सप्ताह कोई खुशियाँ नहीं मनाता था. सादा भोजन करते थे, जमीन पर सोते थे और गुरु परिवार के बलिदान को याद करते थे.
ऐसा इसलिए किया जाता था कि – वे लोग गुरु गोविन्द सिंह , उनके परिवार और उसके साथियों के संघर्ष को समझ सकें.
21 दिसंबर को गुरु गोबिंद सिंह को आनंदपुर साहब किला छोड़ना पडा था. उनकी माँ (माता गुजरी) और छोटे साहबजादे उनसे बिछड़ गए थे
22 दिसंबर को बड़े साहबजादे (बाबा अजीत सिंह और बाबा जुझार सिंह) बलिदान हो गए थे. गुरु गोविन्द सिंह स्वयं घायल हो गए थे. उनके अनेकों साथी भी बलिदान हो गए थे. 23 दिसंबर को गुरु गोविन्द सिंह की माता और छोटे साहबजादे गिरफ्तार कर लिए गए थे.
उनको इस्लाम कबूलने को कहा गया और इस्लाम कबूल न करने पर तीन दिन तक भूखा प्यासा रखा गया और 26 दिसंबर को जिन्दा दीवार में चुनवा दिया गया. ये द्रश्य देखकर माता गुजरी ने भी प्राण त्याग दिए. मुगलों का जुल्म इतने पर भी नहीं रुका.
छोटे साहबजादों को चोरी से गर्म दूध पिलाने वाले मोती राम मेहरा के परिवार को कोल्हू में पेरकर मार दिया गया. छोटे साहबजादों का संस्कार नहीं करने दे रहे थे. जमीन पर सोने की मोहरें बिछाकर सरकार को देने की शर्त रखी, जिसे दीवान टोडरमल ने पूरा किया.
27 नबम्बर को शेर बहादुर खान, बीबी अनूप कौर सहित रोपड़ – मोरिंडा की अनेकों महिलाओं को पकड़कर मलेरकोटला ले गया था जहाँ बाद में अपनी इज्जत बचाने के लिए बीबी अनूप कौर ने जान दे दी थी और जिनका बदला बन्दा बहादुर ने लिया था
उन सबके त्याग और बलिदान को याद करने के लिए पंजाबी लोग खुद भी भौतिक सुखों से दूर रहा करते थे. लेकिन अब आज हम, उस बलिदान को भूल चुके हैं. आजकल यह सप्ताह क्रिसमस की खुशिया मनाने का सप्ताह बन चूका है.
जगह जगह बाजार सज जाते हैं. बड़े बड़े मॉल में रौनक बढ़ जाती है. लोग अपने बच्चों को जोकर जैसे कपडे पहनाकर बड़े खुश होकर घूमते हैं. अब यह सप्ताह छुट्टियाँ मनाने का सप्ताह बन चूका है. यह सप्ताह अब शोक के बजाय मनोरंजन वाला सप्ताह बन गया है.
हम लोगों को गुरु परिवार के बलिदान की याद दिलाने का प्रयास करते हैं. साथ ही आपसे निवेदन करते हैं कि- इस अवसर पर फतेहगढ़ साहब, चमकौर साहब, चप्पदचिडी जैसी जगहों पर अपने बच्चों को घुमाने लेकर जाइए और उन्हें बताइये की हम जोकरों के नहीं सनातनी वीरों के वंशज है।
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