चम्बल का इतिहास क्या हैं? ये वो नदी है जो मध्य प्रदेश की मशहूर विंध्याचल पर्वतमाला से निकलकर युमना में मिलने तक अपने 1024 किलोमीटर लम्बे सफर में तीन राज्यों को जीवन देती है। महाभारत से रामायण तक हर महाकाव्य में दर्ज होने वाली चम्बल राजस्थान की सबसे लम्बी नदी है। श्रापित और दुनिया के सबसे खतरनाक बीहड़ के डाकुओं का घर माने जाने वाली चम्बल नदी मगरमच्छों और घड़ियालों का गढ़ भी मानी जाती है। तो आईये आज आपको लेकर चलते हैं चंबल नदी की सेर पर भारत की सबसे साफ़ और स्वच्छ नदियों में से एक चम्बल मध्य प्रदेश के इंदौर जिले में महू छावनी के निकट स्थित विंध्य पर्वत श्रृंखला की जनापाव पहाड़ियों के भदकला जलप्रपात से निकलती है और इसे ही चम्बल नदी का उद्गम स्थान माना जाता है। चम्बल मध्य प्रदेश में अपने उद्गम स्थान से उत्तर तथा उत्तर-मध्य भाग में बहते हुए धार, उज्जैन, रतलाम, मन्दसौर, भिंड, मुरैना आदि जिलों से होकर राजस्थान में प्रवेश करती है। राजस्थान में चम्बल चित्तौड़गढ़ के चौरासीगढ से बहती हुई कोटा, बूंदी, सवाईमाधोपुर, करोली और धौलपुर जिलों से निकलती है। जिसके बाद ये राजस्थान के धौलपुर से दक्षिण की ओर
मकर संक्रांति का महत्व
हिंदू धर्म ने माह को दो भागों में बाँटा है- कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष।
इसी तरह वर्ष को भी दो भागों में बाँट रखा है। पहला
उत्तरायण और दूसरा दक्षिणायन। उक्त दो अयन को मिलाकर एक वर्ष होता है।
मकर संक्रांति के दिन सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करने
की दिशा बदलते हुए थोड़ा उत्तर की ओर ढलता जाता है,
इसलिए इस काल को उत्तरायण कहते हैं।
सूर्य पर आधारित हिंदू धर्म में मकर संक्रांति का बहुत महत्व माना गया है। वेद और पुराणों में भी इस दिन का विशेष उल्लेख मिलता है। होली, दीपावली, दुर्गोत्सव, शिवरात्रि और अन्य कई त्योहार जहाँ विशेष कथा पर आधारित हैं, वहीं मकर संक्रांति खगोलीय
घटना है, जिससे जड़ और चेतन की दशा और दिशा तय होती
है। मकर संक्रांति का महत्व हिंदू धर्मावलंबियों के लिए वैसा ही है
जैसे वृक्षों में पीपल, हाथियों में ऐरावत और पहाड़ों में हिमालय।
सूर्य के धनु से मकर राशि में प्रवेश को उत्तरायण माना जाता है। इस राशि परिवर्तन के समय को ही मकर संक्रांति कहते हैं। यही
एकमात्र पर्व है जिसे समूचे भारत में मनाया जाता है, चाहे इसका नाम प्रत्येक प्रांत में अलग-अलग हो और इसे मनाने के तरीके भी भिन्न हों, किंतु यह बहुत ही महत्व का पर्व है।
इसी दिन से हमारी धरती एक नए वर्ष में और सूर्य एक नई गति में प्रवेश करता है। वैसे वैज्ञानिक कहते हैं कि 21 मार्च को
धरती सूर्य का एक चक्कर पूर्ण कर लेती है तो इस मान
ने नववर्ष तभी मनाया जाना चाहिए। इसी 21 मार्च के
आसपास ही विक्रम संवत का नववर्ष शुरू होता है और
गुड़ी पड़वा मनाया जाता है, किंतु 14 जनवरी ऐसा दिन है,
जबकि धरती पर अच्छे दिन की शुरुआत होती
है। ऐसा इसलिए कि सूर्य दक्षिण के बजाय अब उत्तर को गमन करने लग जाता है। जब तक सूर्य पूर्व से दक्षिण की ओर गमन करता है तब तक उसकी किरणों का असर खराब माना गया है, लेकिन जब वह पूर्व से उत्तर की ओर गमन करते लगता है तब उसकी किरणें सेहत और शांति को बढ़ाती हैं।
मकर संक्रांति के दिन हीपवित्र गंगा नदी का धरती पर अवतरण हुआ था। महाभारत में पितामह भीष्म ने सूर्य के उत्तरायण होने पर ही स्वेच्छा से शरीर का परित्याग किया था,कारण कि उत्तरायण में देह छोड़ने वाली आत्माएँ या तो कुछ काल के लिए देवलोक में चली जाती हैं या पुनर्जन्म के चक्र से उन्हें छुटकारा मिल जाता है। दक्षिणायन में देह छोड़ने पर बहुत काल
तक आत्मा को अंधकार का सामना करना पड़ सकता है। सब कुछ प्रकृति के नियम के तहत है, इसलिए सभी कुछ प्रकृति से बद्ध है। पौधा प्रकाश में अच्छे से खिलता है, अंधकार में सिकुड़ भी सकता है। इसीलिए मृत्यु हो तो प्रकाश में हो ताकि साफ-साफ दिखाई दे कि हमारी गति और स्थिति क्या है। क्या हम इसमें सुधार कर सकते हैं?
क्या हमारे लिए उपयुक्त चयन का मौका है?
स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने भी उत्तरायण का महत्व बताते
हुए गीता में कहा है कि उत्तरायण के छह मास के शुभ काल में, जब सूर्य देव उत्तरायण होते हैं और पृथ्वी प्रकाशमय रहती
है तो इस प्रकाश में शरीर का परित्याग करने से व्यक्ति का पुनर्जन्म नहीं होता, ऐसे लोग ब्रह्म को प्राप्त हैं। इसके विपरीत
सूर्य के दक्षिणायण होने पर पृथ्वी अंधकारमय होती है
और इस अंधकार में शरीर त्याग करने पर पुनः जन्म लेना पड़ता है।
भगवान शिव ने नंदी को मनुष्यों को प्रतिदिन तेल से स्नान करने और महीने में एक बार भोजन करने के लिए कहा। लेकिन भ्रमित नंदी ने कहा, "रोजाना खाओ और महीने में एक बार तेल से स्नान करो।" क्रोधित, भगवान शिव ने नंदी को मनुष्यों के लिए पृथ्वी पर अधिक भोजन उगाने के लिए भेजा। इसलिए, नंदी पृथ्वी पर आए और खेती में मनुष्यों की मदद की। तब से, नंदी का आगमन फसल उत्सव, पोंगल से जुड़ा हुआ है।
पोंगल के पशु पूजा अनुष्ठान का पता इस कथा से लगाया जा सकता है। लोग नंदी के वंशजों के प्रति अपना आभार व्यक्त करते हैं जिन्होंने उन्हें साल भर अपनी फसल काटने में मदद की है।
मकर संक्रांति वैदिक महत्व -
•इस दिन सूर्यदेव गुरु की राशि "धनु" राशि से शनि की राशि "मकर" राशि में प्रवेश करते हैं इसलिए इस दिन को 'मकर संक्रांति' कहते हैं। इस दिन सूर्य उत्तर दिशा की ओर बढ़ने लगता है जिससे दिन की लंबाई बढ़ती है और रात की लंबाई छोटी होनी शुरू हो जाती है। इस दिन से वसंत ऋतु का प्रारंभ हो जाता है। सूर्य के उत्तरायण होने से शरद ऋतु में व्यावहारिक परिवर्तन प्रारंभ हो जाते हैं।
•इस वर्ष मकर संक्रांति का वाहन व्याघ्र यानि बाघ है, उपवाहन घोड़ा, अस्त्र गदा, दृष्टि ईशान, करण मुख दक्षिण, वारमुख पश्चिम और अंगवस्त्र पीला है।
ज्योतिषीय विश्लेषण -
•मकर संक्रांति के दिन गुड़ का दान करने से गुरु, सूर्य, बुध के दोष दूर होते हैं, वहीं तिल के दान से शनि, राहु और केतु के दोष दूर होते हैं। गंगा स्नान से चंद्रमा और शुक्र के दोष दूर होते हैं। और हवन करने से मंगल के दोष दूर होते हैं।
इसलिए मकर संक्रांति के दिन तिल और गुड़ का दान, और गंगा स्नान अवश्य करें। गंगाजी न जा सकें तो स्नान के जल में गंगा जल मिलाकर स्नान करें। अपने गृह स्थान पर ही एक छोटा सा हवन कर सकते हैं। प्रकृति के परिवर्तन पर हवन से वातावरण शुद्ध होता है और बीमारियों का प्रकोप भी नष्ट होता है।
गंगा स्नान का महत्व -
•मकर संक्रांति के दिन ही मां गंगा धरती पर अवतरित हुई थीं और राजा भागीरथ के पीछे-पीछे कपिल मुनि के आश्रम से होती हुईं गंगा सागर में पहुंची थीं।
इसलिए प्राचीन काल से ही इस दिन को पाप मोचन स्नान भी माना जाता है। संक्रांति में गंगा स्नान से पाप मुक्त होते हैं।
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