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MSD The Disaster

 महेंद्र सिंह धोनी ने छुपने के लिए वो जगह चुनी, जिस पर करोड़ों आँखें लगी हुई थीं! वो जीज़ज़ की इस बात को भूल गए कि "पहाड़ पर जो शहर बना है, वह छुप नहीं सकता!" ठीक उसी तरह, आप आईपीएल में भी छुप नहीं सकते। कम से कम धोनी होकर तो नहीं। अपने जीवन और क्रिकेट में हर क़दम सूझबूझ से उठाने वाले धोनी ने सोचा होगा, एक और आईपीएल खेलकर देखते हैं। यहाँ वे चूक गए। क्योंकि 20 ओवर विकेट कीपिंग करने के बाद उनके बूढ़े घुटनों के लिए आदर्श स्थिति यही रह गई है कि उन्हें बल्लेबाज़ी करने का मौक़ा ही न मिले, ऊपरी क्रम के बल्लेबाज़ ही काम पूरा कर दें। बल्लेबाज़ी का मौक़ा मिले भी तो ज़्यादा रनों या ओवरों के लिए नहीं। लेकिन अगर ऊपरी क्रम में विकेटों की झड़ी लग जाए और रनों का अम्बार सामने हो, तब क्या होगा- इसका अनुमान लगाने से वो चूक गए। खेल के सूत्र उनके हाथों से छूट गए हैं। यह स्थिति आज से नहीं है, पिछले कई वर्षों से यह दृश्य दिखाई दे रहा है। ऐसा मालूम होता है, जैसे धोनी के भीतर अब खेलने की इच्छा ही शेष नहीं रही। फिर वो क्यों खेल रहे हैं? उनके धुर-प्रशंसक समय को थाम लेना चाहते हैं। वे नश्वरता के विरुद्ध...

EX PM Manmohan Singh's Demise

 


मनमोहन सिंह जी का भारत के प्रधानमंत्री पद तक पहुँचना एक बड़ी और महत्वपूर्ण घटना थी क्योंकि वे भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान से विस्थापित हुए परिवार से थे। एक विस्थापित परिवार के व्यक्ति का प्रधानमंत्री पद तक पहुँचना भारतीय लोकतंत्र की मजबूती का प्रमाण है।

     सिंह साहब का जन्म वर्तमान पाकिस्तान के चकवाल जिले में हुआ था। आजादी के बाद हुए विभाजन के बाद पाकिस्तान से लुट पिट कर भारत की ओर भागते लगभग डेढ़ करोड़ पीड़ित हिंदुओं सिक्खों का हिस्सा थे वे। तब उनकी आयु लगभग 16 साल की रही होगी। उन्होंने उन्नीसवीं सदी में हुई सबसे बड़ी बर्बरता को अपनी आंखों से देखा और भोगा था।

     पाकिस्तानी जनता ने उधर के अल्पसंख्यकों के साथ कैसा व्यवहार किया था, यह बताने की कोई विशेष आवश्यक्ता नहीं। उस खूनी इतिहास के रङ्ग से हजारों किताबों के पन्ने लाल हैं। इतिहास का सामान्य विद्यार्थी भी उस अत्याचार को याद कर के सिहर उठता है।

     मैंने कई बार सोचा है, जिस आतंक से भयभीत हो कर सिंह साहब के परिवार को अपनी मिट्टी छोड़ कर भागना पड़ा, उसी आतंक के साये में जी रहे शेष सिक्खों हिंदुओं की उन्हें एक बार भी याद नहीं आयी? दस साल तक भारत के प्रधानमंत्री के रूप में कार्य करते समय वे पाकिस्तान से भाग कर आये सिक्खों हिंदुओं को नागरिकता देने के बारे में एक बार भी न सोच सके? पाकिस्तान या बंगदेश में अब भी अत्याचार झेल रहे अपने भाइयों के लिए भी न बोल सके? कितना दुखद है न यह...

     बंग्लादेश और पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों की दशा न भारतीयों से छिपी है, न ही विश्व विरादरी से। उनके उद्धार के लिए जिस व्यक्ति को सर्वाधिक मुखर हो कर काम करना चाहिये था, वे श्री मनमोहन सिंह जी थे। भारत विभाजन की पीड़ा को जिन करोड़ों लोगों ने भोगा था, उनमें मनमोहन सिंह सर्वाधिक ऊंचाई पर पहुँचे थे। पर वे इस विषय पर चुप ही रहे... 

     सत्ता व्यक्ति को कितना असहाय कर देती है न? वे ही मनमोहन सिंह जी जब सत्ता में बने रहने के लोभ में कहते हैं कि भारत के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है, तो वे अपनी बची खुची प्रतिष्ठा भी खो देते हैं।

     समय व्यक्ति की क्षमता के अनुसार सबको मौका देता है। मनमोहन सिंह जी को भी इतिहास बनाने का मौका मिला था, पर उनसे न हो सका... 

     मैं जानता हूँ कि किसी भी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसकी आलोचना करने की परम्परा नहीं है। वैसे मैं आलोचना कर भी नहीं रहा। यह बस एक दुख है... संसार में सहिष्णुता की परिभाषा बन कर खड़ी सभ्यता के लोग किसी के साथ अन्याय नहीं करते।


(तस्वीर पाकिस्तान में खंडहर हो चुके उनके घर की है जहां उनका बचपन बीता था।)

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