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Book Review: Chitralekha by Bhagwati Charan Verma

 चित्रलेखा – एक दार्शनिक कृति की समीक्षा लेखक: भगवती चरण वर्मा   प्रस्तावना   हिंदी साहित्य के इतिहास में *चित्रलेखा* एक ऐसी अनूठी रचना है जिसने पाठकों को न केवल प्रेम और सौंदर्य के मोह में बाँधा, बल्कि पाप और पुण्य की जटिल अवधारणाओं पर गहन चिंतन के लिए भी प्रेरित किया। भगवती चरण वर्मा का यह उपन्यास 1934 में प्रकाशित हुआ था और यह आज भी हिंदी गद्य की कालजयी कृतियों में गिना जाता है। इसमें दार्शनिक विमर्श, मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और सामाजिक यथार्थ का ऐसा संलयन है जो हर युग में प्रासंगिक बना रहता है । मूल विषय और उद्देश्य   *चित्रलेखा* का केंद्रीय प्रश्न है — "पाप क्या है?"। यह उपन्यास इस अनुत्तरित प्रश्न को जीवन, प्रेम और मानव प्रवृत्तियों के परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करता है। कथा की बुनियाद एक बौद्धिक प्रयोग पर टिकी है जिसमें महात्मा रत्नांबर दो शिष्यों — श्वेतांक और विशालदेव — को संसार में यह देखने भेजते हैं कि मनुष्य अपने व्यवहार में पाप और पुण्य का भेद कैसे करता है। इस प्रयोग का परिणाम यह दर्शाता है कि मनुष्य की दृष्टि ही उसके कर्मों को पाप या पुण्य बनाती है। लेखक...

EX PM Manmohan Singh's Demise

 


मनमोहन सिंह जी का भारत के प्रधानमंत्री पद तक पहुँचना एक बड़ी और महत्वपूर्ण घटना थी क्योंकि वे भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान से विस्थापित हुए परिवार से थे। एक विस्थापित परिवार के व्यक्ति का प्रधानमंत्री पद तक पहुँचना भारतीय लोकतंत्र की मजबूती का प्रमाण है।

     सिंह साहब का जन्म वर्तमान पाकिस्तान के चकवाल जिले में हुआ था। आजादी के बाद हुए विभाजन के बाद पाकिस्तान से लुट पिट कर भारत की ओर भागते लगभग डेढ़ करोड़ पीड़ित हिंदुओं सिक्खों का हिस्सा थे वे। तब उनकी आयु लगभग 16 साल की रही होगी। उन्होंने उन्नीसवीं सदी में हुई सबसे बड़ी बर्बरता को अपनी आंखों से देखा और भोगा था।

     पाकिस्तानी जनता ने उधर के अल्पसंख्यकों के साथ कैसा व्यवहार किया था, यह बताने की कोई विशेष आवश्यक्ता नहीं। उस खूनी इतिहास के रङ्ग से हजारों किताबों के पन्ने लाल हैं। इतिहास का सामान्य विद्यार्थी भी उस अत्याचार को याद कर के सिहर उठता है।

     मैंने कई बार सोचा है, जिस आतंक से भयभीत हो कर सिंह साहब के परिवार को अपनी मिट्टी छोड़ कर भागना पड़ा, उसी आतंक के साये में जी रहे शेष सिक्खों हिंदुओं की उन्हें एक बार भी याद नहीं आयी? दस साल तक भारत के प्रधानमंत्री के रूप में कार्य करते समय वे पाकिस्तान से भाग कर आये सिक्खों हिंदुओं को नागरिकता देने के बारे में एक बार भी न सोच सके? पाकिस्तान या बंगदेश में अब भी अत्याचार झेल रहे अपने भाइयों के लिए भी न बोल सके? कितना दुखद है न यह...

     बंग्लादेश और पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों की दशा न भारतीयों से छिपी है, न ही विश्व विरादरी से। उनके उद्धार के लिए जिस व्यक्ति को सर्वाधिक मुखर हो कर काम करना चाहिये था, वे श्री मनमोहन सिंह जी थे। भारत विभाजन की पीड़ा को जिन करोड़ों लोगों ने भोगा था, उनमें मनमोहन सिंह सर्वाधिक ऊंचाई पर पहुँचे थे। पर वे इस विषय पर चुप ही रहे... 

     सत्ता व्यक्ति को कितना असहाय कर देती है न? वे ही मनमोहन सिंह जी जब सत्ता में बने रहने के लोभ में कहते हैं कि भारत के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है, तो वे अपनी बची खुची प्रतिष्ठा भी खो देते हैं।

     समय व्यक्ति की क्षमता के अनुसार सबको मौका देता है। मनमोहन सिंह जी को भी इतिहास बनाने का मौका मिला था, पर उनसे न हो सका... 

     मैं जानता हूँ कि किसी भी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसकी आलोचना करने की परम्परा नहीं है। वैसे मैं आलोचना कर भी नहीं रहा। यह बस एक दुख है... संसार में सहिष्णुता की परिभाषा बन कर खड़ी सभ्यता के लोग किसी के साथ अन्याय नहीं करते।


(तस्वीर पाकिस्तान में खंडहर हो चुके उनके घर की है जहां उनका बचपन बीता था।)

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