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Waqt aur Samose

 .. जब समोसा 50 पैसे का लिया करता था तो ग़ज़ब स्वाद होता था... आज समोसा 10 रुपए का हो गया, पर उसमे से स्वाद चला गया... अब शायद समोसे में कभी वो स्वाद नही मिल पाएगा.. बाहर के किसी भोजन में अब पहले जैसा स्वाद नही, क़्वालिटी नही, शुद्धता नही.. दुकानों में बड़े परातों में तमाम खाने का सामान पड़ा रहता है, पर वो बेस्वाद होता है..  पहले कोई एकाध समोसे वाला फेमस होता था तो वो अपनी समोसे बनाने की गुप्त विधा को औऱ उन्नत बनाने का प्रयास करता था...  बड़े प्यार से समोसे खिलाता, औऱ कहता कि खाकर देखिए, ऐसे और कहीं न मिलेंगे !.. उसे अपने समोसों से प्यार होता.. वो समोसे नही, उसकी कलाकृति थे.. जिनकी प्रसंशा वो खाने वालों के मुंह से सुनना चाहता था,  औऱ इसीलिए वो समोसे दिल से बनाता था, मन लगाकर... समोसे बनाते समय ये न सोंचता कि शाम तक इससे इत्ते पैसे की बिक्री हो जाएगी... वो सोंचता कि आज कितने लोग ये समोसे खाकर वाह कर उठेंगे... इस प्रकार बनाने से उसमे स्नेह-मिश्रण होता था, इसीलिए समोसे स्वादिष्ट बनते थे... प्रेमपूर्वक बनाए और यूँ ही बनाकर सामने डाल दिये गए भोजन में फर्क पता चल जाता है, ...

कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी

 घरेलू सहायिका ललिता ने बताया तो अचंभा हुआ कि मीठे सीताफल की सब्जी कोई कैसे बना सकता है । छत्तीसगढ़ का कुम्हड़ा दिल्ली आकर सीताफल हो गया मुझे नही मालूम था ।  मैं जिसे सीताफल कह रही थी उसे दिल्ली में शरीफ़ा कहते है। मतलब ललिता और मेरा सीताफल अलग अलग  था। मैं फल की तो वो सब्जी की बात कर रहा था।


मैंने ललिता से फिर सवाल किया  "सीताफल की सब्जी बहुत मीठी लगती होगी ?" चूंकि वो कद्दू के विषय में बता रही थी तो उसने हाँ में हाँ मिलाया, "हाँ भईया, सीताफल तो हल्का मीठा होता है ।" 

सीताफल के काले बीजों की सोच मेरे अचरज का पारावार नही था, "ललिता उसमें इतने बीज होते है तो सब्जी कैसे बनती है? "


कुम्हड़े में भी बीज होते है तो ललिता ने फिर जवाब दिया , " सीताफल के सारे बीज निकाल कर ही सब्जी बनती है। "


मैं झुंझला गया, "हद करते हो दिल्ली वालों।इतने स्वादिष्ट फल में नमक मिर्ची डालकर सत्यानाश कर देते हो ।"


ललिता को यकीन नही हो पा रहा था कि मैंने सीताफल की सब्जी कभी नही सुनी,  "भईया आप लोग सब्जी नही बनाते तो सीताफल कैसे खाते हो?"


ललिता की नादानी पर तरस आया, "सीताफल को तू एक बार कच्चा खाना ।सब्जी बनाना छोड़ देगी ।मैं तो चम्मच से खाता हूँ और एक बार में तीन-चार खा सकता हूँ ।"


ललिता के चेहरे पर दया के भाव थे , "

आप छत्तीसगढ़ में जंगल साइड के हो तो उधर खाते होंगे। सीताफल तो कच्चा खा ही नही सकते ।एक फल तीन से 4 किलो का होता है ।आप दो कैसे खा लेते हो , वो भी चम्मच से ?"


अब मेरा माथा ठनका । छत्तीसगढ़ में गेंद के आकार का सीताफल दिल्ली पहुँचते पहुँचते तीन से चार किलो का कैसे हो गया । बचपन से सुनती आई थी कि दिल्ली दूर है लेकिन इतनी भी दूर नही कि फलों के वजन ऐसे बदल जाए । मैंने गूगल करके कस्टर्ड एप्पल की तस्वीर दिखाई , "ललीता इसकी सब्जी बनाकर खाती हो ?" 


ललिता ने सर ठोका , "हम शरीफा की सब्जी क्यों बनाएंगे । पागल थोड़े न है ? "


अब हम दोनों को गफलत समझ आई और खूब हँसे । उसने बताया कि वो लोग पेठा बनाने वाली सफेद सब्जी को को कद्दू और पीले कुम्हड़े को सीताफल कहते है। मैंने कहा हम मीठा पेठा बनाने वाले सफेद कद्दू को 'रखिया' कहते है  । 

सही बात है -"कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी।" भारत इतना बड़ा देश है कि "एक ही शब्द के अनेक मायने और  एक ही मायने के अनेक शब्द हो सकते है ।" 


दिल्ली में पहली बार गोलगप्पे खाने गया था तो ठेले पर कहा,  "भैय्या गुपचुप तीखा बनाना ।"

 ठेलेवाले ने पूछा ,"क्या  आपके वहाँ गोलगप्पे छीपकर खाते है जिसकी वजह से इसे गुपचुप कहते है ?" दिल्ली में गोलगप्पों को 'पानी बताशे' भी बोलते सुना जबकि छत्तीसगढ़ में दीपावली की पूजा पर लक्ष्मी जी को चढ़ने वाले शक्कर की टिकिया को बताशे कहते है । नमकीन में पड़ने वाले काले दाने-सी कलौंजी नही मिली दिल्ली की दुकानों में ।मुश्किल से पता चला कि कलौंजी यहाँ मंगरैला नाम से जाना जाता है । छत्तीसगढ़ के मुनगा को यहाँ सहजन बुलाते है और वहाँ की बरबट्टी यहाँ 'लोबिया' हो गयी । छत्तीसगढ़ में पत्ता गोभी को हम 'बंदी' कहते है। छत्तीसगढ़ में जिस फल को खरबूज कहते है उसे दिल्ली में कचरा बोलते है । यहाँ कुम्हड़े ने कई नाम धरे है जिसमें सीताफल के अलावा काशीफल भी एक है ।


 इस साल पुणे हॉस्टल में गया तो उस मालूम हुआ कि आज हॉस्टल में कांदा भजिया मिलेगा । उसे कांदा मतलब शकरकन्द मालूम है ।अमरूद को पुणे में पेरू कहते है जबकि छत्तीसगढ़ में बिही और जाम कहते है ।पुणे में मूंगफली को सींगदाना और एप्पल को सफ़रचन्द । वैसे सफरचन्द किसी इंसान का नाम लगता है । सफरचन्द किस फल का नाम है पूछने पर उस व्यक्ति ने वयाख्या कि लाल होते है । मैंने कहा, "टमाटर ?"  


"अरे नही कश्मीर में होते है । डॉक्टर कहते है कि रोज एक खाने से बीमारी दूर होती है।" तब समझ आया कि सेब की बातें कर रहे है।


महाराष्ट्र के हॉस्टल में दोस्त नए नाम सीख रहा है । बैगन का नया नाम  वांगी , मटर का बटाना और आलू का बटाटा हो जाता था। उसने कद्दू को दिल्ली में रहकर सीताफल बोलना सीखा तो पुणे पहुँचकर कद्दू फिर नाम बदलकर 'लाल भोपला' हो गया ।मराठी में धनिया को कोथंबीर,अदरक को आल़,राई को मोहरी कहते है। "चाय में जरा आल (अदरक)ज्यादा डालना"  सुना तो लगा अरे! चाय में आलू क्यो डाल रहे ?

 छत्तीसगढ़ में बैगन - भटा, टमाटर- पताल, भिंडी -रमकेरिया , गंवार फल्ली- चुटचुटइया , अरबी- कोचई होती है। सोचकर देखिए सब्जियों के चार्ट के चार्ट बदल गए .। 😂


मैं वेजिटेरियन हूँ ।पुणे में होटलों में जगह जगह बोर्ड लगे होते है -यहाँ ताज़े कुम्हड़ी मिलते है। हर जगह यह पढ़कर मैंने सोचा कि कुम्हड़ी भी कद्दू का ही नाम है ।होटल में जाकर पूछने पर पता चला कि मुर्गा को पुणे में कुम्हड़ी कहते है।😂पुणे में भगवान जी ने भी नाम बदल लिया - पाडूरंगा, भगवान विठ्ठल । गहराई से जानने की कोशिश की तो ज्ञात हुआ भगवान श्री कृष्ण को ही विट्ठल महाराज कहते है । 


बेटे को महाराष्ट्र में हलवा का नया नाम मालूम हुआ 'शीरा' जबकि दिल्ली आने के बाद सोन पापड़ी का नाम पतिसा हो गया।  छत्तीसगढ़ में हम दुकान में फल्लीदाना कहते है । दिल्ली में फल्लीदाना मांगा तो कौन सी फल्ली पूछा ।मैंने बार-बार फल्लीदाना कहा तो उन्हें नही समझा ।फिर बताया पोहे में डलता है ।तब उन्होंने कहा , "अच्छा मूंगफली।" अब फल्लीदाना कहना छोड़ मूंगफली कहती हूँ तो बेटे ने पुणे में सेंगदाना कहना शुरू कर दिया ।अब फोन पर पूछो तो बताता है लाल भोपटा (कद्दू) की सब्जी खाया।


राजस्थानी परिवार के यहाँ एक कार्यक्रम में गयी तो उनकी माता जी ने मुझे बेटी मानकर पैर छू शगुन का लिफाफा पकड़ाया । मैंने अपनी सहेली से कहा - आँटी ने मुझे क्यो रुपये दिए ?

उसने कहा , "अरे तुम्हे धोके (शगुन )का दिया ।"

मुझे लगा मुझे किसी और के धोखे में पैसे पकड़ा दिए ।मैं लिफाफा जिद से लौटाने लगी कि किसी और के धोखे का पैसा मैं कैसे लूं ?बाद में धोके का अर्थ पता चला और सब लोग बहुत हँसे ।


छतीसगढ़ में भगौना या पतीले को गंजी कहते है जबकि बिहार में गंजी मतलब बनियान । एक बार एक राजस्थानी महिला ने बताया उसने बाज़ार से 100 रुपये का घाघरा लिया । मैंने लालच में  आँखे फाड़ दी ।भला 100 रुपये में कहाँ घाघरा मिला । दिखाने कहा तो उसने सब्जी पकाने वाली बड़ी का पैकेट लाकर दिखाया । वो सब्जी बनाने वाली बड़ी को घाघरा कह रही थी ।😂

तेलंगाना में लोग इडली डोसा को टीफिन कहते है। जब मैं छत्तीसगढ़ में जॉब में थी तब मेरी एक तमिल कलीग कहती थी -रात के डिनर में हम टिफिन(इडली डोसा) ही खाते है । मुझे लगा कितनी आलसी है ।खाना बनाने से बचने टिफिन बंधा लिया । मैंने कहा - दो लोगों का खाना बनाने में कितना टाइम लगता है ।टिफिन क्यो खाती हो? ।उसने जवाब दिया - आप नार्थ इंडियन लोगों को रोटी बनाने की आदत है तो आलस नही आता । हम साउथ के लोग एक टाइम तो टिफिन(इडली डोसा ) खाते ही है। बहुत दिनों बाद उसके टिफिन का मतलब समझने पर हम दोनों खूब हँसे।


जब हम अपना शहर और राज्य छोड़ते है तो घर गलियाँ और लोग ही नही, कुछ शब्द भी हमें हमेशा के लिए छूट जाते है ।  


         अपनी भाषा ,धर्म , रंग या जाति के लिए कट्टर आग्रह या अगाध श्रेष्ठता-बोध दिमाग के दरवाज़े बंद करता है। सर्वग्राह्यता और समभाव हमें बेहतर इंसान बनाता है ।नई चीजों की स्वीकार्यता ,सीखना और शामिल करने का अर्थ जड़ से कटना नही बल्कि  विकसित और समृद्ध होना है । 


ललिता से कुछ ऐसे शब्द सीखे जो कभी नही सुने थे , "दीदी मेरा वीरवार का उपवास रहता है।"


मैंने विस्मय से पूछा , "सन्डे उपवास तो पहली बार सुन रही ।"

ललिता से स्पष्ट किया, " रविवार नही वीरवार ।"

मैंने फिर सवाल किया, "ललिता ,वीरवार किस दिन को बोलते है।"

ललिता ने समझाया, "दीदी गुरुवार को वीरवार बोलते है।"


एक दिन सफाई करती हुई कहने लगी , "परली साइड वाली मेट्रो में जाऊँगी ।" मुझे लगा 'परली'  किसी जगह का नाम है मगर मालूम हुआ कि उरली साइड मतलब दाई तरफ परली साइड मतलब बायीं तरफ । यहाँ राजगीर के लड्डू को अमरनाथ या चौलाई के लड्डू कहा जाता है , लौकी को घीया और चौराहे को गोल चक्कर कहते है जबकि बिहार में चौक को गोलाम्बर कहते है। दिल्ली में जो सबसे जबरदस्त सुना वो था टक्कर , टक्कर मतलब तिराहा  - आगे जाकर एक 'टक्कर'  मिलेगा तो उरली साइड (दाई तरफ) मुड़ जाना। 😂


पहले-पहल इन नए अनसुने शब्दों को बोलने में हिचकिचाहट , अटपटा और खुद को बड़ा बेचारा सा लगता है । घर छोड़कर आये लोगों में अस्थायित्व का भाव स्थायी होता है  ।


घोंसले छोड़कर उड़े परिंदों का संघर्ष लम्बा होता है। पहली शुरुवात भाषा छूटने की पीड़ा ही होती है लेकिन रिश्तों , भाषा और शहर की फितरत एक-सी होती है। जैसे-जैसे हम इन्हें जानने लगते है , वो भी थोड़ा-थोड़ा हमें समझने और अपनाने लगते है..। यात्राओं से मिला अनुभव भिन्नताओं को सम्मान देना सीखाता है । "वसुधैव कुटुम्बकम" उक्ति तो यही कहती है कि पूरी धरा ही परिवार है ।


अब मैं छत्तीसगढ़ जाने पर सीताफल कच्चे खाती हूँ और दिल्ली में सीताफल(कद्दू)की सब्जी बनाती हूँ क्योकि दिल्ली में सीताफल शराफत में रहते हुए शरीफ़ा हो जाता है । 😊इस भव्य देश की विविधता सर आँखों पर । हमारे यहाँ एक शब्द के पर्यायवाची के साथ साथ अनेकार्थी शब्दों की ऐसी बाहुल्यता है ,जो भारत से बाहर किसी और देश में बिरले ही देखने मिलेगी ।  💗

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