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Tyagpatra by Jainendra Book Review

 त्यागपत्र: एक अंतर्मुखी पीड़ा की कहानी जैनेंद्र कुमार का उपन्यास 'त्यागपत्र' भारतीय साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह उपन्यास मृणाल की कहानी है, जो अपने पति प्रमोद के द्वारा त्याग दी जाती है। कहानी मृणाल के अंतर्मुखी पीड़ा, सामाजिक बंधनों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संघर्ष को दर्शाती है। जैनेंद्र कुमार की लेखन शैली सरल और गहरी है। उन्होंने मृणाल के मन की उलझनों और भावनात्मक जटिलताओं को बहुत ही संवेदनशील तरीके से चित्रित किया है। कहानी में सामाजिक रूढ़ियों और व्यक्तिगत इच्छाओं के बीच का द्वंद्व स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। मृणाल का त्यागपत्र केवल एक शारीरिक त्यागपत्र नहीं है, बल्कि यह उसके आंतरिक संघर्ष और मुक्ति की खोज का प्रतीक है। उपन्यास में प्रमोद का चरित्र भी जटिल है। वह एक ऐसे व्यक्ति के रूप में दिखाया गया है जो सामाजिक दबावों और अपनी कमजोरियों के कारण मृणाल को त्याग देता है। यह उपन्यास उस समय के समाज में महिलाओं की स्थिति और उनके संघर्षों पर प्रकाश डालता है। 'त्यागपत्र' एक ऐसा उपन्यास है जो पाठक को सोचने पर मजबूर करता है। यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता, सामाजि...

Biography of Sardar Udham Singh| सरदार उधम सिंह की जीवनी

Biography of Sardar Udham Singh| सरदार उधम सिंह की जीवनी

Sardar Udham Singh
Sardar Udham Singh

31 जुलाई 1940, सुबह के 4:00 बज रहे थे। लंदन की पैंटनविले जेल में, जेलर ने अपने सहायक को लोहे की बनी मोटी सलाखों वाले दरवाजे को खोलने का आदेश दिया। जेलर ने कहा तुम्हारा समय आ गया है क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुम बहुत जल्दी मर रहे हो? आंखों में सुकून, सिर पर पगड़ी और हाथों में वाहेगुरु का जप नाम लिए शेर सिंह उठा। और बड़े आत्मविश्वास के साथ उसने कहा- 
"मैंने उसे मारा क्योंकि मुझे उससे नफरत थी। वो इसी लायक था। मैं किसी समाज का नहीं। मैं किसी के साथ नहीं। मरने के लिए बूढ़े होने का इंतजार क्यों करना? मैं देश के लिए अपनी जान दे रहा हूं।"

घड़ी आगे बढ़ चली थी। थोड़ी देर बाद आदेश के अनुसार शेर सिंह को फांसी दे दी गई।
 शेर सिंह, 2 महीने पहले तक अंग्रेज सरकार को इस नाम से बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता था। लेकिन 2 महीने पहले कुछ ऐसा हुआ जिसने अंग्रेजी हुकूमत को यह बता दिया कि हिंदुस्तान अब नया रूप ले रहा है। यह घर में घुसेगा भी और ठोकेगा भी। शेर सिंह की शहादत के बाद ही पता चला कि भगत सिंह केवल एक नाम नहीं था, बल्कि भगत सिंह पूरी सोच है। आप इंसान को तो मार सकते हैं, लेकिन अब सोच को कैसे मारेंगे। शेर सिंह जाते-जाते एक दिलेर काम कर गया था। या यूं कहें कि एक दिलेर काम करने के लिए उसे जाना पड़ा था। यूं तो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी अंग्रेजों से लड़ने के लिए गांधीजी के अहिंसा के पथ पर चल रही थी लेकिन शेर सिंह के एक ऊधमी कृत्य की वजह से पंडित जवाहरलाल नेहरु इतना अधिक प्रभावित हुए कि वह भी वाह वाही करे बिना ना रह सके। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, "भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए अहिंसा के पथ पर अग्रसर है लेकिन माइकल ओ डायर को उसके किए की सजा मिलनी ही चाहिए थी।"

अभी तक तो आपको पता चल ही गया होगा कि हम किस वीर सपूत की बात कर रहे हैं। जी हां आपने सही पहचाना यह शेर सिंह कोई और नहीं, जलियांवाला बाग हत्याकांड की बदला लेने वाले भारत मां के वीर सपूत भगत सिंह के बाद "शहीद-ए-आजम" का दर्जा पाने वाले, सरदार उधम सिंह थे।

  • सरदार उधम सिंह : प्रारंभिक जीवन

सरदार उधम सिंह के बचपन का नाम शेर सिंह था। उनका जन्म वर्तमान भारतीय पंजाब के संगरूर जिले के एक छोटे से गांव में 26 दिसंबर 1896 को हुआ था। उनके पिता तेहल सिंह कंबोज, ब्रिटिश रेलवे में रेलवे क्रॉसिंग वॉचमैन थे। घर की माली हालत बहुत ज्यादा अच्छी नहीं थी लेकिन फिर भी तेहल सिंह कंबोज अपने दोनों बेटों मुक्ता सिंह और शेर सिंह को धैर्य के साथ पाल रहे थे। लेकिन शायद होनी को कुछ और ही मंजूर था. 1901 में मात्र 5 वर्ष की आयु में ही शेर सिंह ने अपनी मां को खो दिया और उसके 4 साल बाद 1905 में पिता की भी मृत्यु हो गई। मुक्ता और शेरा दोनों अनाथ हो गए। इसीलिए दोनों को सिख अनाथालय भेज दिया गया। जहां पर दोनों भाइयों को मिली नई पहचान। शेर सिंह थोड़े उपद्रवी स्वभाव के थे शरारते ज्यादा किया करते थे इसलिए उन्हें नाम दिया गया उधम सिंह और भाई मुक्ता सिंह एकदम शांत स्वभाव के थे, साधु की तरह रहते थे साधु उनका नाम धर दिया गया। ले गई शायद किस्मत उधम सिंह से कुछ और ही काम करवाना चाहती थी सन 1917 में भाई मुक्ता सिंह की भी मृत्यु हो गई और उधम सिंह बिल्कुल अकेले हो गए। इस समय उधम सिंह की आयु मात्र 18 वर्ष थी। 1918 में उन्होंने मैट्रिक पास किया और 1919 की शुरुआत में उधम सिंह ने अनाथालय छोड़ दिया।

  • सरदार उधम सिंह: जलियांवाला बाग हत्याकांड

सन 1919 में ब्रिटिश सरकार भारत में क्रांतिकारी गतिविधियों को रोकने के लिए काला कानून रॉलेक्ट एक्ट लेकर आई। रोलेट एक्ट के तहत ब्रिटिश हुकूमत किसी भी भारतीय व्यक्ति को मात्र शक भर होने पर गिरफ्तार कर सकती थी। इसके अन्य नियमों में ट्रेड यूनियन का बैन होना, हड़ताल पर पाबंदी आदि शामिल थे। इस रोलेक्ट एक्ट का सर्वाधिक विरोध पंजाब में हो रहा था। पंजाब में इसका विरोध करने वाले प्रमुख क्रांतिकारियों में सत्यपाल एवं सैफुद्दीन किचलू शामिल थे। ब्रिटिश सरकार ने इन दोनों की गिरफ्तारी कर ली। इसकी प्रतिक्रिया में बैसाखी के दिन जलियांवाला बाग में शांतिपूर्ण विरोध करने के उद्देश्य से हजारों लोग एकत्रित हुए थे। जलियांवाला बाग में केवल एक प्रवेश द्वार था और एक कुआं था। अचानक जनरल रेगनॉल्ट एडवर्ड हैरी डायर ने ब्रिटिश सेना की गोरखा रेजीमेंट को निहत्थे मासूमों पर गोलियां चला देने का आदेश दिया। ब्रिटिश सेना ने तब तक फायरिंग की जब तक उनकी सारी गोलियां खत्म ना हो गईं। इस भीषण गोलाबारी में तकरीबन 20000 लोगों की हत्या कर दी गई और हजारों की संख्या में लोग घायल हो गए। उधम सिंह जलियांवाला बाग में उस दिन विरोध प्रदर्शन कर रहे लोगों को खाना एवं पानी वितरित कर रहे थे। जलियांवाला बाग हत्याकांड भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में सर्वाधिक खूनी एवं निहत्थे लोगों पर शक्ति प्रदर्शन करने के कारण नरसंहार की श्रेणी में आता है। इस हत्याकांड के विरोध में गांधी जी ने भी पंजाब में विरोध प्रदर्शन करने चाहे। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने गांधी जी को भी पंजाब जाने से रोक दिया। 
ऐसा कहा जाता है कि गोलियों से अपनी जान बचाने के लिए मासूम नागरिक एकमात्र कुएं में कूदने लगे। लेकिन ब्रिटिश सेना अपने दमन चक्र में महिलाओं एवं बच्चों को भी कुचलना ना भूली। कहते हैं वह कुआं इसमें नागरिक अपनी जान बचाने के लिए छुप रहे थे लाशों से पूरी तरह से भर गया था।
जलियांवाला बाग हत्याकांड भारतीय इतिहास में कई महत्वपूर्ण एवं प्रमुख क्रांतिकारियों के उत्थान का कारण माना जाता है। जिनमें से प्रमुख थे सरदार भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल और सरदार उधम सिंह।

  • सरदार उधम सिंह: जीवन का टर्निंग प्वाइंट

जलियांवाला बाग हत्याकांड सरदार उधम सिंह के जीवन में एक टर्निंग प्वाइंट की तरह था। पहले ही सपने सभी अपनों को खो चुके एक व्यक्ति के लिए अपने देशवासियों का नृशंस नरसंहार असहनीय हो उठा। इस हत्याकांड के बाद उधम सिंह का जीवन पूरी तरह से परिवर्तित हो गया। उधम सिंह ने अपना जीवन क्रांतिकारी गतिविधियों में समर्पित कर दिया। क्रांतिकारी योजनाओं को सुचारू रूप से चलाने के लिए पैसे की आवश्यकता होती थी। इसके लिए उधम सिंह ने जिंबाब्वे संयुक्त राज्य अमेरिका एवं लंदन में भी नौकरियां की। यूएसए की फोर्ड कंपनी में सरदार उधम सिंह टूल मेकर का काम करते थे। 1920 में "बाबर अकाली" नामक दल के सानिध्य में उधम सिंह क्रांतिकारी गतिविधियों में कूद पड़े। उधम सिंह के पास अवैध कार्यक्रमों में रिवाल्वर हमेशा साथ रहती थी। इसी बीच सरदार उधम सिंह को आर्म्स एक्ट के तहत गैर कानूनी रिवाल्वर रखने के कारण 1927 में गिरफ्तार कर लिया गया। 4 साल जेल काटने के बाद सरदार उधम सिंह ने यह पाया कि अंग्रेज भारत में सांस्कृतिक मतभेद फैलाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। मैं हिंदू मुसलमानों में फूट डलवाने की कोशिश कर रहे थे। सरदार उधम सिंह को यह बात नागवार गुजरी। जेल से छूटने के बाद उन्होंने "राम मोहम्मद सिंह आजाद" के नाम से एक दुकान खोली। सरदार उधम सिंह का मानना था कि उनका यह नाम भारत के 3 बड़े धर्मों को एक साथ छोड़ कर सामाजिक एकता बनाए रखने में सहयोग करेगा।
Ram Mohammad singh Azad
Image Source: Vicky Kaushal Insta Account

23 मार्च 1931 को ब्रिटिश सरकार द्वारा भगत सिंह को रातो रात फांसी दे दी जाती है। जिसका समाचार मिलते ही पूरे भारत में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ दंगे एवं उपद्रव बढ़ने लगते हैं। अपने खिलाफ दंगों को भयानक रूप लेता देख ब्रिटिश हुकूमत अपने हिस्ट्रीशीटरओं को जेल में बंद करना शुरू कर देती है। जिस कारण सरदार उधम सिंह को भी ढूंढा जाता है। ठेके सरदार उधम सिंह कुछ महीने कश्मीर में बताने के बाद 1935 में लंदन चले जाते हैं। जहां पर वह अलग-अलग काम करते हुए अपना जीवन काटते हैं।

  • सरदार उधम सिंह : पराक्रम दिवस

लंदन में रहते हुए सरदार उधम सिंह को यह पता चलता है कि जलियांवाला बाग हत्याकांड में गोली चलाने का आदेश देने वाला जनरल डायर पहले ही मर चुका है। लेकिन इस हत्याकांड का समर्थन करने वाला पंजाब का तात्कालिक उपरज्यपाल माइकल ओ डायर अभी जीवित था। सरदार उधम सिंह ने अपने हजारों भाइयों के मारे जाने का बदला लेने का विचार बनाया।
उन्होंने माइकल ओ डायर का पीछा करना शुरू किया और यह पता कर लिया कि 13 मार्च 1940 को लंदन के कैक्सटन हॉल में East India Association & Central Asian Society, की बैठक है, जिसमें माइकल ओ डायर को भाषण देने के लिए बुलाया गया है। उधम सिंह एक ब्रिटिश जेंटलमैन का रूप अख्तियार करते हैं और अपने हाथ में किताब, जिस के पन्नों को रिवाल्वर के आकार का काटकर उसमें रिवाल्वर छुपाकर Caxton Haul ले जाते हैं। धैर्य पूर्वक डायर का पूरा भाषण सुनने के बाद अचानक से उधम सिंह खड़े होते हैं और अपनी किताब में छुपी हुई रिवाल्वर निकालते हैं। और सामने खड़े माइकल ओ डायर पर छह राउंड फायर कर देते हैं। इनमें से तो 2 गोलियां सटीक निशाने पर लगते हुए Dyior के दिल में लगती है और शरीर के पार निकल जाती हैं। एक गोली उनके दाएं फेफड़े में रखती है जिससे उन्हें श्वांस संबंधी दिक्कत आती है, और वही डायर की मृत्यु हो जाती है।
माइकल ओ डायर की हत्या करने के बाद उधम सिंह भागते नहीं हैं। वह वहीं खड़े रहकर पुलिस के आने का इंतजार करते हैं और अपने आप को पुलिस के हवाले कर देते हैं। 

  • सरदार उधम सिंह: अंग्रेजों द्वारा मुकदमे का ढोंग

अंग्रेजों द्वारा पहले ही हत्या के आरोप में न्यायिक जांच से पहले ही मृत्युदंड पा चुके उधम सिंह पर 1 अप्रैल 1940 को अदालती कार्रवाई शुरू की जाती है और उन्हें Brixton Jail में रखा जाता है।
लेकिन सरदार उधम सिंह 42 दिनों तक लगातार भूख हड़ताल कर देते हैं जिसे बाद में ब्रिटिश सरकार जबरदस्ती तुड़वाती है। उनके हाथ पैर बांध कर उनकी नाक में नली डालकर दूध उनके शरीर में पहुंचा दिया जाता है। 4 जून 1940 को Central Criminal Court सरदार उधम सिंह को माइकल ओ डायर की हत्या का आरोपी मानते हुए फांसी की सजा देती है। और 31 जुलाई 1940 को लंदन की Pentonville Jail में सरदार उधम सिंह को फांसी दे दी जाती है। 
सरदार उधम सिंह फांसी के फंदे पर चढ़ने से पहले आंखों में आंखें डाल कर यह कहते हैं कि
"मैंने उसे मारा क्योंकि मुझे उससे नफरत थी। वो इसी लायक था। मैं किसी समाज का नहीं। मैं किसी के साथ नहीं। मरने के लिए बूढ़े होने का इंतजार क्यों करना? मैं देश के लिए अपनी जान दे रहा हूं।"
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