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Waqt aur Samose

 .. जब समोसा 50 पैसे का लिया करता था तो ग़ज़ब स्वाद होता था... आज समोसा 10 रुपए का हो गया, पर उसमे से स्वाद चला गया... अब शायद समोसे में कभी वो स्वाद नही मिल पाएगा.. बाहर के किसी भोजन में अब पहले जैसा स्वाद नही, क़्वालिटी नही, शुद्धता नही.. दुकानों में बड़े परातों में तमाम खाने का सामान पड़ा रहता है, पर वो बेस्वाद होता है..  पहले कोई एकाध समोसे वाला फेमस होता था तो वो अपनी समोसे बनाने की गुप्त विधा को औऱ उन्नत बनाने का प्रयास करता था...  बड़े प्यार से समोसे खिलाता, औऱ कहता कि खाकर देखिए, ऐसे और कहीं न मिलेंगे !.. उसे अपने समोसों से प्यार होता.. वो समोसे नही, उसकी कलाकृति थे.. जिनकी प्रसंशा वो खाने वालों के मुंह से सुनना चाहता था,  औऱ इसीलिए वो समोसे दिल से बनाता था, मन लगाकर... समोसे बनाते समय ये न सोंचता कि शाम तक इससे इत्ते पैसे की बिक्री हो जाएगी... वो सोंचता कि आज कितने लोग ये समोसे खाकर वाह कर उठेंगे... इस प्रकार बनाने से उसमे स्नेह-मिश्रण होता था, इसीलिए समोसे स्वादिष्ट बनते थे... प्रेमपूर्वक बनाए और यूँ ही बनाकर सामने डाल दिये गए भोजन में फर्क पता चल जाता है, ...

Ram Navmi Special: Why Lord Ram is so Great| श्री राम नवमी विशेष: जानिए आखिर क्यों पूजे जाते हैं मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम

भारतीय काल गणना के अनुसार प्रत्येक मन्वंतर में चार युग होते हैं सतयुग त्रेता युग द्वापरयुग एवं कलयुग। वर्तमान मन्वंतर वैवस्वत मन्वंतर है। इसी मन्वंतर के त्रेता युग एवं द्वापर युग के संदीप के समय में कौशल राज्य के राजा दशरथ एवं महारानी कौशल्या की बड़े पुत्र का नाम राम था। उनका जन्म चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की नवमी के दिन मध्यान्ह सरयू नदी के तट पर स्थित अयोध्या नामक नगरी में हुआ था। श्री राम के पूर्वज सूर्यवंशी क्षत्रिय थे उनके पर पिता महा इक्ष्वाकु ने चक्रवर्ती सम्राट की उपाधि धारण की थी इसीलिए उनको इक्ष्वाकु वंश यह भी कहा जाता है।
राजा दशरथ की तीन रानियां थी कौशल्या सुमित्रा और कैकई। इन तीन रानियों से महाराजा दशरथ को चार पुत्रों की प्राप्ति हुई थी श्री राम भरत लक्ष्मण और शत्रुघ्न। श्री राम इनमें सबसे बड़े थे श्री राम की माता कौशल्या दक्षिण कोशल अर्थात वर्तमान छत्तीसगढ़ की थीं।
आखिर क्यों पूजे जाते हैं भगवान् श्री राम?
आखिर क्यों पूजे जाते हैं भगवान् श्री राम?

श्री राम बचपन से ही वीर धीर एवं शांत स्वभाव के थे। उन दिनों समाज में दुष्टों का आतंक बढ़ रहा था। यह दुष्ट व्यक्ति ही राक्षस कहलाते थे। यह राक्षस समाज के निधि लोगों एवं वनों में आश्रम बनाकर ज्ञान दान करने वाले ऋषि मुनियों पर तरह तरह के अत्याचार कर उन्हें प्रताड़ित करते रहते थे।
इन्हीं अत्याचारी राक्षसों से संघर्ष हेतु समाज को नेतृत्व प्रदान करने वाले महानायक की आवश्यकता थी। रिशु में अग्रगण्य महर्षि विश्वामित्र को श्रीराम में वह सब गुण दिखाई दिए जो रावण जैसे महा राक्षस के अत्याचारी शासन से जनता को मुक्ति दिला सकने वाले किसी महानायक में आवश्यक हो सकते थे। अतः श्री राम को शस्त्र एवं शास्त्र की समुचित दीक्षा देने के लिए महर्षि विश्वामित्र उन्हें राजा दशरथ से मांग कर अपने साथ ले गए। वहां श्रीराम ने लघु भ्राता लक्ष्मण के साथ कुख्यात राक्षसी ताड़का सुबह हूं एवं उनके हजारों राक्षस साथियों के साथ युद्ध कर उन्हें पराजित कर दिया।
श्री राम का विवाह मिथिला के राजा श्री जनक की पुत्री सीता जी के साथ संपन्न हुआ। लेकिन विवाह के उपरांत वह कुछ दिन विश्राम भी नहीं कर पाए थे कि भी माता कैकई एवं कुटिल दासी मंथरा के षडयंत्र के कारण उन्हें 14 वर्ष के लिए वनवास में जाना पड़ा। पर उन्होंने विमाता के कठोर आज्ञा को सहर्ष स्वीकार करते हुए कहा-
अहं हि वचनाद् राज्ञः पतेयमपि पावके ।
भक्षयेयं विषं तीक्ष्णं पतेय मपि चार्णवे।।
अर्थात "मैं महाराज के कहने से आग में भी कूद सकता हूं तीव्र विष का पान कर सकता हूं और समुद्र में भी गिर सकता हूं।"

वनवास के 14 वर्ष की अवधि में भी उन्हें पद पद पद अनेक कष्टों और बाधाओं का सामना करना पड़ा पर वह किंचित मात्र भी सत्य और धर्म के पथ से विचलित ना हुए। समाज की त्रास देने वाले अवसरों और राक्षसों का संहार करते हुए संत साधु और समाज कल्याण के कार्य में लगे हुए ऋषि-मुनियों को अभय दान देते हुए दीन हीन वानर एवं वृक्ष नामधारी जातियों में आत्मविश्वास का संचार करते हुए उन को एकता के सूत्र में पिरो ते हुए वे निरंतर छोटे भाई लक्ष्मण एवं पत्नी सीता के साथ दक्षिण पथ पर आगे बढ़ते चले गए।
पर उनके ऊपर आने वाली अदाएं भी निरंतर बढ़ती चली गई। यहां तक की लंकाधिपति राक्षस राज रावण ने छल से सीता जी का भी हरण कर लिया। अपनी पत्नी सीता को खोजते हुए राम का वियोग अद्भुत परिलक्षित होता है। जंगलों में हुए जंगली जानवरों से अपनी पत्नी के बारे में जानकारी लेते हुए पूछते हैं
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी तुम देखी सीता मृगनयनी?

 सीता की रक्षा करते हुए पक्षी पक्षी राज जटायु का प्राण अंत हुआ। रावण पुत्र मेघनाथ से युद्ध करते हुए प्रिय अनुज लक्ष्मण मूर्छित होकर मरणासन्न अवस्था को प्राप्त हुए। पर श्रीराम ने साहस और धैर्य का परित्याग नहीं किया। लक्ष्मण के मूर्छित हो जाने पर उनकी चिंता एक आम व्यक्ति की भांति ही साफ दिखाई देती है-
धोखा ना दो भैया मुझे इस भांति आकर के यहां
मझधार में मुझको बहा कर तात जाते हो कहां।
सीता गई तुम भी चले मैं ना जियूंगा अब यहां
सुग्रीव बोले साथ में सब वानर जाएंगे वहां।।

 अंततः उन्होंने असुर राज रावण को पराजित कर राम राज्य की स्थापना कर अपने महान व्यक्तित्व द्वारा युग युगांतर के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम के महान आदर्श की स्थापना की।
श्री राम सद्गुणों के सागर थे। सत्य, दया, क्षमा, वीरता, विनम्रता, मातृ पितृ भक्ति, शरणागत वत्सलता,आदि अनेक सद्गुणों का पूर्ण विकास उनके व्यक्तित्व में हुआ था।
सौतेली माता के आदेश पर ही उन्होंने पल भर में युवराज का पद त्याग कर कांटो से भरे वनवास को स्वीकार किया। उनका मातृप्रेम भी अतुलनीय था। जिस भाई भरत की माता के कारण उन्हें कष्ट झेलना पड़ा उनके प्रति भी उनका असीम अनुराग था वह लक्ष्मण से कहते हैं-
यद् विना भरतं त्वां च, शत्रुघ्नं वापि मानद
भवेन्यम सुखं किंचिद भस्य तत् कुरुतां शिखी
भारत तुम और शत्रुघ्न को छोड़कर यदि मुझे कोई भी सुख होता हो तो उसमें आग लग जाए।

श्री राम का मित्र प्रेम भी अत्यंत स्तुति और अनुकरणीय है। सुग्रीव विभीषण एवं हनुमान आदि मित्रों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए वे लंका विजय के उपरांत राज्यारोहण के समय कहते हैं
सुहृदो में भवन्तश्च, भ्रातरस्तथा
हे वनवासी वानरों आप लोग मेरे मित्र भाई तथा शरीर हैं। आप लोगों ने मुझे संकट से उबारा है।

इसी प्रकार राम ने भील वृद्धा शबरी के झूठे बेरों को ग्रहण करके तथा पक्षीराज जटायु का अग्नि संस्कार अपने हाथों करके सामाजिक समरसता एवं दिन वत्सल ताका आदर्श प्रस्तुत किया। हनुमान तो उनके सबसे प्रिय थे। उनके प्रति कृतज्ञता का भाव व्यक्त करते हुए वह कहते हैं-
भदग्डे॰ जीर्णतां यातु यत्वयोपकृत कपे।
नरः प्रत्युपकराणमापत्स्वायाति पात्राताम्
हनुमान तुम्हारे एक एक उपकार के बदले मैं अपने प्राण भी दे दूं तो भी इस विषय में शेष उपकारों के लिए मैं तुम्हारा रणी ही बना रहूंगा।
 श्री रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास भी हनुमान जी के प्रति श्री राम के अनुराग को कुछ इस प्रकार प्रदर्शित करते हैं
तुम मम प्रिय भरत सम भाई।
अर्थात हे हनुमान तुम मुझे भरत के जितने ही प्रिय हो।
श्री राम महा पराक्रमी होते हुए भी विनय एवं शील से संपन्न थे। उनकी विनम्रता ने ही परशुराम के क्रोध को भी जीत लिया था। मंथरा जैसी विकृत मानसिकता वाली कुटिल दासी को भी क्षमा कर देने वाले क्षमा सागर आजीवन एक पत्नी व्रत का पालन करने वाले परम संयमी लोक कल्याण के लिए जीवन समर्पित कर देने वाले श्रीराम के महान गुणों की जितनी भी चर्चा की जाए उतनी कम है। लोकनायक कत्व के इस महान आदर्श पुरुष को भगवान के रूप में सुसज्जित कर भारतीय समाज ने उनके प्रति कृतज्ञता का ज्ञापन ही किया है। निम्न श्लोक में उनका जीवन वृतांत इस प्रकार है
आदौ राम तपोवनादि गमनं, हत्वा मृग कांचनम्
वैदेही हरण जटायु मरणं सुग्रीव संभाषणम्।
बाली निग्रहणम् समुद्र तरणं लंकापुरी दाहनम्
पश्चात रावण, कुंभकरणादि हननं ऐतद्धि रामायणम्

जय श्री राम🚩

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